मानव जीवन परिवर्तनशीलता, सम्भावनाओं और विभूतियों का अक्षय भंडार है। उसमें कब कौन-सा परिवर्तन आ जाए इसको कोई नहीं बता सकता। बचपन का नटखट और उपद्रवी बालक नरेन्द्र युवा अवस्था का तार्किक नरेन्द्र स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव से इतना धीर, गम्भीर, वेदान्त में पारंगत दृढ़वृत संन्यासी बन जाएगा। यह कोई नहीं जानता था। जिनकी जीवनी गहन अन्तर्दृष्टि और वेदान्त वैचारिकी का अनुपम पाठ है। विवेकानन्द कहते हैं-"मानव का हृदय ईश्वर का सबसे बड़ा मन्दिर है
और इस मन्दिर में उसकी आराधना करनी होगी।" उन्होंने वही किया और गुरु से प्राप्त शिक्षा को विद्यालयों की जगह मनुष्य के हृदय में रोपते हुए, मनुष्य बनाने के लिए देश-विदेश में घूम-घूमकर प्रवचन देते-देते ही ब्रह्मलीन हुए। हिन्दी साहित्य के कथा सम्राट और जन-जीवन के चितेरे मुंशी प्रेमचन्द ने सरल और सिद्धहस्त लेखनी से भारत के महापुरुष स्वामी विवेकानन्द का जीवन चरित्र प्रस्तुत किया।
"प्रेमचन्द -
प्रेमचन्द (1880-1936) का जन्म बनारस के निकट लमही गाँव में हुआ था। स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद अनेक प्रकार के संघर्षों से गुज़रते हुए उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की। इक्कीस वर्ष की उम्र में उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया। लेखन की शुरुआत उर्दू में नवाब राय नाम से किया और 1910 में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का पहला संकलन 'सोजेवतन' नाम से प्रकाशित हुआ। इस संकलन को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त करवा दिया। इसके बाद उनके जीवन में नया मोड़ आया। अपने लेखन का माध्यम उन्होंने हिन्दी भाषा को बनाया और 'प्रेमचन्द' नाम से लिखना शुरू किया। आगे चलकर यही नाम भारतीय कथा-साहित्य में अमर हुआ। प्रेमचन्द ने 1920 तक सरकारी नौकरी की। इसी समय उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पूरे देश में सत्याग्रह शुरू हुआ जिसका उनके मन पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। प्रेमचन्द ने 1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 से 'हंस' नामक ऐतिहासिक पत्रिका का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया।
प्रेमचन्द ने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखी हैं। इनके अलावा अनेक उपन्यास और वैचारिक निबन्ध लिखे। गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, गवन, रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। 'प्रेमचन्द : 'विविध प्रसंग' उनके वैचारिक लेखों का संकलन है।
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