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तिरुक्कुरळ

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'तिरुक्कुरल'
धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक चित्रण आज से दो हजार वर्ष पहले सन्त तिरुवल्लुवर ने तमिल में अपने 'तिरुक्कुरल' में जैसा किया है वैसा अन्यत्र मिलना बहुत दुर्लभ है। यह इस नीतिकाव्य को पढ़कर मानना पड़ेगा। यह दोहा (कुरल) काव्य इतना निर्वैयक्तिक और सम्प्रदाय-निरपेक्ष है कि इसे वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई आदि धर्म के विद्वानों ने अपने-अपने धर्म से सम्बद्ध होने के तर्क दिये हैं।
परन्तु यह वास्तव में जैन ग्रन्थ है, इसके कई संकेत हैं। आचार्य कुन्दकुन्द और सन्त तिरुवल्लुवर एक ही व्यक्ति रहे प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनका समय और क्षेत्र तो एक है ही, उनके लेखन के विषय में भी बहुत समानता है; दोनों को 'एलाचार्य' विशेषण भी समान रूप से दिया गया है। 'तिरुक्कुरल' में जिन 'आदि भगवान्' को नमस्कार किया गया है वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ ही हैं। इसमें भगवान् को 'अष्ट-गुण' कहा गया है जो जैन णमोकार मन्त्र में परिगणित सिद्ध परमेष्ठी के आठ मूलगुणों की ओर संकेत करता है। इसमें लोक (ब्रह्माण्ड) वात-वलय (वायु-मण्डल) से वेष्टित बताया गया है, जो केवल जैन लोक-विद्या से मेल खाता है। इसमें वर्णित अहिंसा आदि धार्मिक और नैतिक सिद्धान्त भी जैन धर्म के अनुरूप हैं।
ऐसे इस राष्ट्रीय महत्त्व के ग्रन्य का स्व. पं. गोविन्दराय जी का हिन्दी अनुवाद कुन्दकुन्द भारती ने प्रकाशित किया था। वहीं से इसका पाँचवाँ संस्करण डॉ. सुदीप जैन द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ। अब परम पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी महाराज के आशीर्वाद से इस ग्रन्य का प्रस्तुत संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से हो रहा है। इस सन्दर्भ में जिनका सहयोग प्राप्त हुआ है उन सभी का मैं आभारी हूँ और परम पूज्य आचार्यश्री के प्रति श्रद्धावनत हूँ।
रमेश चन्द्र
ट्रस्टी, भारतीय ज्ञानपीठ

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