टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार
टीआरपी टीवी न्यूज़ और बाज़ार -
टेलीविज़न चैनलों के सम्बन्ध में होने वाली तमाम चर्चाओं में टीआरपी का ज़िक्र लाज़िमी तौर पर आ जाता है। मीडिया से जुड़े लोग या प्रबुद्ध जन ही नहीं, आम दर्शक भी अब बख़ूबी जानते हैं कि टीवी चैनल टीआरपी की होड़ में आगे निकलने के लिए तरह-तरह के तमाशे और प्रपंच रचते रहते हैं। चैनल अगर किसी ख़बर को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं, उसे तोड़ते-मरोड़ते हैं या मसाला-मिर्च लगाकर चटखारेदार बनाते हैं तो इसके पीछे उनकी टीआरपी की अन्तहीन लिप्सा ही होती है। लेकिन ये भी सचाई है कि लोग टीआरपी के बारे में बस इतना ही जानते हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। उन्हें पता नहीं होता कि वास्तव में ये टीआरपी है क्या, ये कहाँ से आयी, क्यों आयी और किस तरह से चैनलों को अपने इशारों पर नचा रही है? वे ये तो जानते हैं कि टीआरपी टेलीविज़न न्यूज़ एवं कार्यक्रमों को प्रभावित कर रही है, मगर इसकी प्रक्रिया से वे अनजान हैं ?
टेलीविज़न को बेहतर ढंग से समझने के लिहाज से ये सवाल बहुत अहमियत रखते हैं, क्योंकि इनका सम्बन्ध केवल टेलीविज़न के बदलते चाल, चरित्र और चेहरे से ही नहीं है, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था से भी है। टीवी, बाज़ार और टीआरपी ये तीनों ही आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं और इनके अन्तःसम्बन्ध एक-दूसरे को बड़े पैमाने पर प्रभावित भी कर रहे हैं। ऐसे समय में जब हम एक टीवी-समाज में तब्दील कर दिये गये हैं और बाज़ार टीवी के ज़रिये हमें उपभोक्ता समाज के रूप में ढालकर सब कुछ अपने स्वार्थ साधने में लगा हो तो ये प्रश्न सीधे मानवीय अस्तित्व से भी जुड़ जाते हैं। मिसाल के लिए अगर इस गठजोड़ की वजह से पत्रकारिता अपने उद्देश्य से भटक जाती है और चौथे खम्भे के रूप में मीडिया अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर पाता तो पूरा लोकतन्त्र ही ख़तरे में पड़ जाता है। हम ये होता हुआ देख भी रहे हैं, ख़ास तौर पर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य इसकी पक्की गवाही देता है। टेलीविज़न पर बाज़ार के नियन्त्रण ने उसे लोक तथा लोकतन्त्र दोनों से काट दिया है। यही वजह है कि वह जन समस्याओं को भूल चुका है और जन सरोकारों से उसका सम्बन्ध टूट चुका है। उत्तेजनाओं और भावोन्मादों से खेलना उसका एकमात्र एजेंडा बन गया है। वह परिवर्तन का, ग़रीबी, विषमता, शोषण, अशिक्षा आदि से लड़ने का औज़ार नहीं रह गया है। उसे गाँव-देहात, मज़दूर किसान की सुध नहीं रह गयी है। सस्ते मनोरंजक फार्मूलों में बँधकर वह अवाम के लिए अफ़ीम बनकर रह गया है।
डॉ. मुकेश कुमार की ये किताब टीआरपी के तिलिस्म को तोड़ते हुए टेलीविज़न, बाज़ार और उसमें टीआरपी की भूमिका से जुड़े उठने वाले तमाम प्रश्नों के सुस्पष्ट उत्तर देती है। पाँच साल के शोध पर आधारित किताब टीआरपी का मायाजाल में टीआरपी के तमाम रहस्यों से पर्दा उठाती है। ये बताती है कि मुद्दा केवल ये नहीं है कि टीवी चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता को मापने की मौजूदा रेटिंग प्रणाली दोषपूर्ण है या वह भारत जैसे विविधतापूर्ण देश की पसन्द-नापसन्द को ठीक ढंग से बता ही नहीं सकती अथवा वह पारदर्शी नहीं है और उसका बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। समस्या इससे कहीं ज़्यादा बड़ी है। ये किताब तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर साबित करती है कि टीआरपी दरअसल बाज़ार का औज़ार है और पूरी टीवी इंडस्ट्री को उसने अपना बँधुआ बना लिया है। किताब बताती है कि न्यूज़ चैनलों के मौजूदा आर्थिक मॉडल में बाज़ार के हथियार के तौर पर टीआरपी सबसे ऊपर बैठी है। टीआरपी टीवी कंटेंट की नियन्ता बन गयी है क्योंकि न्यूज़ चैनल टीआरपी को केन्द्र में रखकर ही अपनी सम्पादकीय और व्यापारिक नीति बनाते हैं। अब सम्पादकीय सामग्री का फैसला सम्पादक और पत्रकार नहीं करते, टीआरपी के ज़रिये बाज़ार करता है, बाज़ार को चलाने वाली शक्तियाँ करती हैं मुश्किल ये है कि टीआरपी के इस दुष्चक्र का तोड़ किसी के पास नहीं है और कोई तोड़ना भी नहीं चाहता। टीवी उद्योग के विपणन से जुड़े तमाम पक्ष उल्टे सरकार, बाज़ार और मीडिया संस्थान चाहे-अनचाहे उसे बनाये रखने तथा मजबूत करने में ही जुटे हुए हैं। अगर चन्द लोग इसकी मुख़ालफ़त करते भी हैं तो उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती साबित होती है।
कुल मिलाकर मीडिया में काम करने वालों और मीडिया पर नज़र रखने वालों के लिए तो ये बेहद महत्त्वपूर्ण किताब है ही मगर उनके लिए भी ये बहुत उपयोगी होगी जो मीडिया के ज़रिये समाज में आ रहे परिवर्तनों को जाँचने-परखने में दिलचस्पी रखते हैं।