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तू जीत के लिए बना

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Tu Jeet Ke Liye Bana
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"कवि अगर अपने समय का संस्कृति-पुरुष है तो कविता उसके द्वारा रची गयी सांस्कृतिक थाती। यह संस्कृति क्या है, अगर कोई जिज्ञासा ही कर बैठे तो तमाम तरह से सोच-विचार कर अन्ततः कहना यही पड़ेगा कि एक ऐसा युग-सत्य ज़माना जिससे आँख बचाकर उन राहों की ओर निकल जाना चाहता है जिन्हें सफलता की राहें कहा और माना जाता है। पर ये 'राहें' सत्य और सार्थकता की राहें भी कभी मानी जायेंगी कि नहीं, कहना कठिन है। इसीलिए एक कवि का कहना भूलता ही नहीं कि समय के सघन अँधेरों में जब सारी आवाज़ें खामोश हो जाती हैं, तब जो एक आवाज़ किसी चीख़ या पुकार या आवाहन/उद्बोधन के रूप में सारे ज़माने में सुनाई देती है, वही कवि की आवाज़ होती है। इसका यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि झूठी आवाज़ों का अपना कोई वजूद नहीं होता है पर वह इतना उथला और सतही होता है जैसे इन दिनों के अख़बार या मीडिया चैनल हो गये हैं। ये मुनाफ़े की वे चमकीली जगहें हैं जो दरबारदारी के रंग में रँगी हुई हैं। उन्हें झूठ से कोई ख़ास परेशानी नहीं है। पर कविता तो झूठ को अफ़ोर्ड ही नहीं कर सकती। इसलिए वीरेन्द्र वत्स जैसे कवि जब यह लिखते हैं कि कविता सत्य का प्रबल प्रवाह है, तब वे यह भी याद दिलाते हैं कि सत्य का दूसरा नाम कविता है या कविता का पहला नाम सत्य है। महाकवि तुलसी तब सहज ही याद हो आते हैं- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।' गांधी तो कविता और सत्य को अगल-बगल बिठाकर कहते हैं-सच बोलना ही कविता है। ऐसे सच को बोलने के लिए कवि में जिस ईमान और साहस की ज़रूरत पड़ती है, उसका प्रमाण कवि द्वारा प्रतिबिम्बित वह जीवनानुभव हुआ करता है, जो उसकी कविता में काव्यानुभव के रूप में दर्ज होता चलता है। वीरेन्द्र वत्स के ये जीवनानुभव हमारे इसी समय और लोक के हैं, जिनमें हमारी अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति है। न केवल एक दर्शक के रूप में बल्कि सीधे-सीधे भागीदार की तरह। हमारे उस लोकतन्त्र में, हमारी अपनी नागरिकता के साथ, जिसे हमारे जन-प्रतिनिधियों ने विवश प्रजात्व में ढाल दिया है। कवि वीरेन्द्र वत्स की कविताएँ इसीलिए हमारी उस विस्मृत नागरिकता की पुकार हैं, जिसके होश में आने पर कोई देश सचमुच देश बनता है और उसके द्वारा स्वीकृत लोकतन्त्र सचमुच लोक का अपना तन्त्र बनता है। वीरेन्द्र वत्स की कविताएँ अपनी पहली प्रतिज्ञा में इस खोये हुए लोकतन्त्र की बेचैन तलाश हैं। पर यह कोई हवाई तलाश नहीं है, न कोई ऐसा देखा जा रहा जादुई स्वप्न जिसे जानने और पहचानने के लिए किसी गूढ़ या जटिल खोज-यात्रा से हमें गुज़रना पड़े। विपरीत इसके यह एक ऐसी जानी-पहचानी तलाश है, जिसे आज़ादी के बाद एक पूरी काव्य-परम्परा आकुल-व्याकुल होकर ढूँढ़ती रही है। समकालीन कविता की अधिकांश प्रतिभाएँ जहाँ भाषा और छन्द की एकरसता से ग्रस्त हैं, वहीं इस कवि की कविता के छन्द और भाषा-रूपों की विविधता हम पाठकों को न केवल राहत देती है बल्कि यह उम्मीद भी जगाती है कि गीत-दोहे आदि अनेक तुकान्त छन्द अभी भी निःशेष नहीं हुए हैं और प्रतिभाओं का स्पर्श पाकर वे बार-बार अपनी चमक बिखेरते रहेंगे। कवि वीरेन्द्र वत्स इस दृष्टि से हमारे समय के उन जन समर्पित कवियों में हैं जिनकी कविता की आधारभूत प्रतिज्ञा वह राष्ट्रीय जीवन-यथार्थ है जो इस वक़्त की सबसे बड़ी ख़बर है और दुखद सच्चाई भी, जिसे इस कवि ने अपने दोहों और ग़ज़लों में दर्ज कर ऐसा सांस्कृतिक इतिहास लिख दिया है, जो न केवल चिन्तित और उदास करता है, बल्कि हमसे यह उम्मीद भी करता है कि हम अपनी भूमिका को लेकर कब सोचना शुरू करेंगे - भूमिका से "
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वीरेन्द्र वत्स (Veerendra Vats)

"वीरेन्द्र वत्स कवि-गीतकार हैं। जन्म : 02 जनवरी 1963, ग्राम-गोपालपुर सराय ख़्वाजा, विकासखण्ड-करौंदीकला, जनपद-सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश। शिक्षा : एम.ए. हिन्दी साहित्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। बी.ए. गांधी स्मारक डिग्री कॉलेज, समोधपुर, जौनपुर, गोरखपुर विश्वविद्यालय। हाईस्कूल एवं इंटरमीडिएट श्री हनुमत इंटर कॉलेज, बिजेथुआ, सूरापुर, सुल्तानपुर। कार्यानुभव : 'स्वतन्त्र भारत', 'दैनिक जागरण' और ‘हिन्दुस्तान' समाचारपत्रों में 33 वर्षों तक सेवा। वर्तमान में राज्य सूचना आयुक्त, उत्तर प्रदेश। उपलब्धियाँ और सम्मान : 'अन्तरराष्ट्रीय महात्मा गांधी सम्मान', 'डॉ. राममनोहर त्रिपाठी पत्रकारिता सम्मान’, ‘अटल बिहारी वाजपेयी सम्मान', ‘संस्कृति सम्मान’, ‘अखिल भारतीय भोजपुरी सम्मान’, लखनऊ, ‘ज्ञान गौरव सम्मान' आदि से सम्मानित। हिन्दी और भोजपुरी फ़िल्मों के लिए लेखन। आपके ग़ज़ल-संग्रह कोई तो बात उठे की एक ग़ज़ल ‘नज़र नहीं है नज़ारों की बात करते हैं/ज़मीन पे चाँद-सितारों की बात करते हैं/ वो हाथ जोड़कर बस्ती को लूटने वाले/भरी सभा में सुधारों की बात करते हैं' काफ़ी चर्चित हुई है। मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ विधानसभा के बजट सत्र में इस ग़ज़ल के शेर पढ़े थे। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी इस ग़ज़ल को संसद और जनसभाओं में पढ़ते नज़र आये। आपकी एक और ग़ज़ल के शेर संसद में गूँज चुके हैं- 'मेरा हर लफ़्ज़ है अमन के लिए/मेरी हर साँस बन्दगी के लिए/मैं हवा के ख़िलाफ़ चलता हूँ सिर्फ़ इन्सान की ख़ुशी के लिए'। इसके आलावा आप उत्तर प्रदेश सरकार के कई महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक अभियानों के लिए गीत भी लिख चुके हैं। प्रकाशन-प्रसारण : ‘कोई तो बात उठे’ (ग़ज़ल-संग्रह); ‘अन्त नहीं यह’, ‘तू जीत के लिए बना’ (काव्य-संग्रह); ‘सहचरी खण्डकाव्य’ और ‘महाप्रलय’ उपन्यास प्रेस में। देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। विशेष : प्रयागराज में छात्र- जीवन के दौरान महीयसी महादेवी वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी और डॉ. मोहन अवस्थी जैसे सिद्ध रचनाकारों तथा आचार्यों का स्नेह व सान्निध्य मिला। आपने उनके साक्षात्कार भी लिये, जो दैनिक 'आज' तथा 'स्वतन्त्र भारत' में प्रमुखता से प्रकाशित हुए। वे साक्षात्कार अब हिन्दी साहित्य की धरोहर बन गये हैं। बाद के दिनों में आपने शायर-गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, अनजान और संगीतकार नौशाद के भी साक्षात्कार लिये। ये साक्षात्कार दैनिक ‘हिन्दुस्तान' में प्रकाशित हुए और काफ़ी चर्चित रहे। "

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