हिन्दी में उपन्यास का जितना और जैसा विकास हुआ है उतना और वैसा विकास उपन्यास की आलोचना का नहीं हुआ है। वैसे हिन्दी में उपन्यास की आलोचना का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना उपन्यास लेखन का। हिन्दी में आजकल उपन्यास की आलोचना केवल पुस्तक समीक्षा बन गयी है। यह उपन्यास की आलोचना की पुस्तक है। इसमें तीन खण्ड हैं। पहले खण्ड में उपन्यास का सिद्धान्त है और इतिहास भी। इसके आधार लेख में यह मान्यता है कि उपन्यास का जन्म लोकतन्त्र के साथ हुआ है। लोकतन्त्र उपन्यास का पोषक है और उपन्यास लोकतन्त्र का। यही नहीं उपन्यास का स्वभाव भी लोकतान्त्रिक है। इसके साथ ही इसमें उपन्यास के समाजशास्त्र का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है। पुस्तक के दूसरे खण्ड में प्रेमचन्द के कथा-साहित्य पर छह निबन्ध हैं जिनमें उनके उपन्यासों और कहानियों को रचना सन्दर्भों के साथ समझने की कोशिश है। तीसरे खण्ड में जैनेन्द्र के उपन्यास ‘सुनीता’, नागार्जुन के ‘रतिनाथ की चाची’, रणेन्द्र के ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, साद अजीमाबादी के ‘पीर अली’, संजीव के ‘रह गयी दिशाएँ इसी पार’, और मदन मोहन के ‘जहाँ एक जंगल था’ की संवेदना और शिल्प का विश्लेषण तथा मूल्यांकन है। उम्मीद है कि जो पाठक आलोचना में सिद्धान्त और व्यवहार की एकता के पक्षधर हैं उन्हें यह किताब पसन्द आएगी।
जन्म : 23 सितम्बर, 1941 को बिहार प्रान्त के वर्तमान गोपालगंज जनपद के एक गाँव ‘लोहटी’ में हुआ।
शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा गाँव में तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं।
प्रमुख कृतियाँ : ‘शब्द और कर्म’, ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’, ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’, ‘भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’, ‘अनभै साँचा’, ‘आलोचना की सामाजिकता’, ‘संकट के बावजूद’ (अनुवाद, चयन और सम्पादन) ‘देश की बात’ (सखाराम गणेश देउस्कर की प्रसिद्ध बांग्ला पुस्तक ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद की लम्बी भूमिका के साथ प्रस्तुति), ‘मुक्ति की पुकार’ (सम्पादन), ‘सीवान की कविता’ (सम्पादन)।
सम्मान : हिन्दी अकादमी द्वारा दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’, ‘साहित्यकार सम्मान’, ‘राष्ट्रीय दिनकर सम्मान’, रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का ‘गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार’ और दक्षिण भारत प्रचार सभा का ‘सुब्रह्मण्य भारती सम्मान’।
मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी में एक ओर ‘साहित्य और इतिहास-दृष्टि’ के माध्यम से साहित्य के बोध, विश्लेषण तथा मूल्यांकन की ऐतिहासिक दृष्टि का विकास किया है तो दूसरी ओर ‘साहित्य के समाजशास्त्र’ के रूप में हिन्दी में साहित्य की समाजशास्त्रीय दृष्टि के विकास की राह बनाई है। उन्होंने भक्त कवि सूरदास के साहित्य की समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की प्रचलित धारणा से अलग एक सर्वथा नई तर्काश्रित प्रासंगिकता सिद्ध की है। हिन्दी में दलित साहित्य और स्त्री स्वतंत्रता के समकालीन प्रश्नों पर बहसें हुई हैं, उनमें पाण्डेय जी की अग्रणी भूमिका को बार-बार रेखांकित किया गया है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा संस्थान के भारतीय भाषा केन्द्र से सेवानिवृत्त।