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Varna Jaati Aur Dharma

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वर्ण, जाति और धर्म
वर्ण, जाति और धर्म भारतीय समाज और संस्कृति में ऐसे एकरस हो गये हैं कि उनसे अलग होकर हम कुछ सोच ही नहीं पाते।
परिणाम, मानव-मानव के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी कि उसने समाज का ही अहित नहीं किया, राष्ट्रीय प्रगति को भी रोका। जैन धर्म, जिसने प्रारम्भसे ही वर्ण और जाति को प्रश्रय नहीं दिया वह भी इसके प्रभाव से अछूता न रहा।
जैनाचार्य इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्होंने जातिप्रथा प्रारम्भ होने पर उसका खुलकर विरोध किया। और वह सब अब हम भी जानें कि वर्ण, जाति और धर्म के विषय में जैनाचार्यों तथा जैन चिन्तकों की क्या मान्यताएँ हैं और क्यों । इतिहास, संस्कृति, साहित्य और समाजशास्त्र की पृष्ठभूमि और तुलनात्मक विश्लेषण में सिद्धहस्त जैन-जगत् के यशस्वी विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री द्वारा शास्त्रीय प्रमाणों को आधार बनाकर लिखी गयी यह पुस्तक हमें एक नयी दिशा प्रदान करती है।

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