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वोल्गा से गंगा

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Volga Se Ganga
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वोल्गा से गंगा' राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई बीस कहानियों का संग्रह है। सारी कहानियाँ आठ हजार वर्षों तथा दस हजार किलोमीटर की परिधि में बँधी हुई हैं।
संगह की पहली चार कहानियाँ-‘निशा', 'दिवा', 'अमृताश्व' और 'पुरुहूत'-6000 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक के समाज का चित्रण करती हैं। ये उस काल की हैं, जब मनुष्य अपनी आदम अवस्था में था, कबीलों के रूप में रहता था और शिकार करके अपना पेट भरता था। उस युग के समाज और हालातों का चित्रण करने में राहुल जी ने भले ही कल्पना का सहारा लिया हो, किन्तु इन कहानियों में उस समय को देखा जा सकता है।
संग्रह की अगली चार कहानियाँ -‘पुरुधान', 'अंगिरा', 'सुदास्' और 'प्रवाहण' हैं जो 2000 ई.पू. से 700 ई.पू. तक के सामाजिक उतार-चढ़ावों और मानव सभ्यता के विकास को प्रकट करती हैं। इनमें वेद, पुराण, महाभारत, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों आदि को आधार बनाया गया है।
490 ई.पू. को प्रकट करती कहानी 'बन्धुल मल्ल' में बौद्धकालीन जीवन प्रकट हुआ है। 335 ई.पू. के काल को प्रकट करती कहानी 'नागदत्त' में आचार्य चाणक्य के समय की, यवन यात्रियों के भारत आगमन की झलक मिलती है।
इसी तरह 50 ई.पू के समय को प्रकट करती कहानी 'प्रभा' में अश्वघोष के 'बुद्धचरित' और 'सौन्दरानन्द' को महसूस किया जा सकता है। 'सुपर्ण यौधेय' भारत में गुप्तकाल यानी 420 ई.पू. ‘रघुवंशम्’, ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्' और पाणिनी के समय को प्रकट करती कहानी है। इसी तरह 'दुर्मुख' जिसमें 630 ई. का समय प्रकट होता है, 'हर्षचरित', 'कादम्बरी', ह्वेनसांग और इत्सिंग के साथ हमें भी ले जाकर जोड़ देती है। चौदहवीं कहानी 'चक्रपाणि' है, जो 1200 ई. के 'नैषधचरित' तथा उस युग का खाका हमारे सामने खींचकर रख देती है । पन्द्रहवीं कहानी 'बाबा नूरदीन' से लेकर अन्तिम कहानी 'सुमेर' तक के बीच में लगभग 650 वर्षों का अन्तराल है। मध्य युग से वर्तमान युग तक की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपने माध्यम से व्यक्त करती ये छह कहानियाँ- 'बाबा नूरदीन', 'सुरैया', 'रेखा भगत', 'मंगल सिंह', 'सफदर’ और ‘सुमेर’–अतीत से उतारकर हमें वर्तमान में इस तरह ला देती हैं कि एक सफर के पूरा हो जाने का अहसास होने लगता है। इन कहानियों में भी कथा-रस के साथ ही ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस हद तक शामिल है कि कथा और इतिहास में अन्तर कर पाना असम्भव हो जाता है।
इन तमाम बातों के बाद एक मुख्य बात यह कि 'वोल्गा से गंगा' मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री-वर्चस्व और स्त्री-सम्मान को व्यक्त करने वाली एक बेमिसाल कृति है। इसमें यदि स्त्रियों के कुल प्रदर्शन और प्रकृति पर नजर दौड़ायी जाए तो पता चलता है कि मातृसत्तात्मक समाज में वे कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छन्द थीं। किसी की सम्पत्ति नहीं थीं। वे पुरुषों की तुलना में ज्यादा तेज और साहसी होती थीं। 'निशा', 'दिवा' आदि कहानियाँ इसका पुख्ता प्रमाण भी प्रस्तुत करती हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्तात्मक समाज को पितृसत्तात्मक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि 'वोल्गा से गंगा' हिन्दी और भारतीय साहित्य की ही नहीं बल्कि पूरे विश्व साहित्य को समृद्ध करने वाली एक ऐसी कृति है जिसका पृथ्वी के किसी भी काल में कभी भी महत्त्व कम न होगा, भूमिका सदा अग्रणी बनी रहेगी।

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राहुल सांकृत्यायन (Rahul Sankrityayan)

"राहुल सांकृत्यायन - जन्म : 9 अप्रैल, 1893 मूर्धन्य और अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान राहुल सांकृत्यायन साधु थे, बौद्ध भिक्षु थे, यायावर थे, इतिहासकार और पुरातत्त्ववेत्ता थे; नाटककार और कथाकार थे और थे जुझारू स्वतन्त्रता सेनानी, किसान-नेता, जन-जन के प्रिय नेता। उनके अनन्य मित्र भदन्त आनन्द कौसल्यायन के शब्दों में- उन्होंने जब जो कुछ सोचा, जब जो कुछ माना, वही लिखा, निर्भय होकर लिखा। चिन्तन के स्तर पर राहुल जी कभी भी न किसी साम्प्रदायिक विचार - सरणी से बँधे रहे और न संगठित सरणी से । वह 'साधु न चले जमात' जाति के साधु पुरुष थे। राहुल जी ने धर्म, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान, समाज, राजनीति, इतिहास, पुरातत्त्व, भाषाशास्त्र, संस्कृत ग्रन्थों की टीकाएँ, अनुवाद और इसके साथ-साथ रचनात्मक लेखन करके हिन्दी को इतना कुछ दिया कि हम सदियों तक उस पर गर्व कर सकते हैं। उन्होंने जीवनियाँ और संस्मरण भी लिखे और अपनी आत्मकथा भी। अनेक दुर्लभ पाण्डुलिपियों की खोज और संग्रहण के लिए व्यापक भ्रमण भी किया। निधन : अप्रैल, 1963

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