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सवर्ण और दलित समुदाय के स्वभाव के ताने-बाने में बुना यह उपन्यास मूल रूप से जाति और मानवीय सम्बन्धों पर आधारित है । मानवीय सम्बन्धों के विविध पहलुओं को इस उपन्यास में उजागर किया गया है। सामाजिक संघर्ष के साथ मानवीय सम्बन्धों का विवित्र रसायन इस उपन्यास में व्यक्त हुआ है। जाति छिपाकर रहने वाले दलित शिक्षक आनन्द काशीकर के सम्बन्ध में नारायण पडवल का आत्मीय प्रेम और तिरस्कार इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है। आनन्द काशीकर की जाति जब तक मालूम नहीं होती, तब तक उससे होने वाला मानवीय व्यवहार अलग तरह का है। जाति प्रकट होने पर सब कुछ बदल जाता है। दो समुदायों के बीच विद्वेष पैदा करने वाली, देश की एकता में दरार डालने वाली, सामाजिक सद्भाव नष्ट करने वाली और मानवीयता के चेहरे पर कालिख पोतने वाली हरकतें जगजाहिर हैं। इस दिशा में विचार करने के लिए 'झुंड' एक सार्थक प्रयास है। उपन्यास का अन्त पाठकों के लिए अमानुष जाति-व्यवस्था का उपकार और मानवीयता का प्रखर अहसास कराने वाला है । आशा है समाज-व्यवस्था को समझने में 'झुंड' उपन्यास मददगार साबित होगा।

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शरण कुमार लिम्बाले (Sharan Kumar Limbale)

1 जून, 1956 को जन्मे डॉ. शरणकुमार लिंबाले ने एम.ए. , पीएच.डी. की शिक्षा प्राप्त की है। ‘अक्करमाशी’ (आत्मकथा) , ‘‘छुआछूत’, ‘‘देवता आदमी’, ‘‘दलित ब्राह्मण’ (कहानी संग्रह) , ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ (समीक्षा) , ‘नरवानर’, ‘हिंदू’, ‘बहुजन’ (उपन्यास) आपकी हिन्दी में प्रकाशित कृतियाँ हैं। आप नासिक (महाराष्ट्र) के यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र ओपन यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी कल्याण विभाग के प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं।

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