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Vani Prakashan

Anand Path

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कहो मित्र, कैसा रहा 'नीलचन्द्र' का अनुभव! मुझे मालूम था कि तुम उसके दूसरे भाग 'आनन्द पथ' से भी उससे बेहतर तरीके से गुज़रना चाहोगे। उसके लिए तुम्हें एक विश्वसनीय साथी भी मिल चुका है, जो बराबर चेताता है कि वह साथी कोई दूसरा नहीं, तुम्ही हो, कैसे? यही जानने के लिए है तुम्हारे हाथ में ‘आनन्द पथ'। आहिस्ता से उसे खोलो। उसे अपनी चेतना में तलाश करो। करते रहो। समय लग रहा है, लगने दो, क्योंकि तुम्हें अब अपने को जानना है। श्रीअरविन्द में से गुज़रते हुए तुम्हें अपने को पहचानना है। आवाज़ दो सन्नाटे में, देते रहो। इतनी ज़ोर से दो कि उसे तुम स्वयं भी नहीं सुन सको। स्मरण रहे, तुम किसी को बुला रहे हो। बिना उसके छटपटा रहे हो। तो प्यार से, दिल से, संगीत के स्वर में उसे आवाज़ दो। जब तुम आवाज़ दे-देकर, थक जाओगे, निराशा के अँधेरे में हाथ पर हाथ धरे बैठे सोचना बन्द कर दोगे, तब कुछ समय बाद एक महीन-मधुर आवाज़ सुनोगे। वह आवाज़ तुम्हारे सिर को सहला रही होगी, तुम्हारे दिल में उतरकर तुम्हें मना रही होगी। कह रही होगी, “जब दो प्यार करने वाले एक होने लगते हैं, तब ऐसा ही होता है-एक रूठता है तो दूसरा मनाता है। आओ, रेशमी डोरे से बँधे मेरे अनमोल प्यार, गुस्सा थूको, प्यार करें। इस दुनिया को भी प्यार का उपहार दें।"

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