Anubhav Ka Munh Peechhe Hai
सत्य की ओर इंगित करने के अनेक माध्यम हो सकते हैं। उनमें से एक कविता भी हो सकती है। दुःखों का चित्रण, विवशताओं का विवरण, विसंगतियों की व्याख्या, व्यवस्था एवं अव्यवस्था अभिव्यक्ति भर ही कविता की विषय-वस्तु नहीं हो सकते। इन दिनों कविता के कण्टेण्ट की व्यापकता में बहुत विस्तार हुआ है। रोज़ी-रोटी की चिन्ता से मुक्ति के बाद साहित्य सेवा करने वाले वर्गों एवं व्यक्तियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। इसीलिए कई नये विषयों पर ढंग-ढंग की कविताएँ लिखी जा रही हैं। कल्पना की उड़ान की जगह अनुभव की आसक्ति अधिक त्वरा के साथ पैर जमाती जा रही है। संवेदना के स्थान पर जीवन में विवेक और बुद्धि का अधिक प्रयोग हो रहा है। विचार खुलकर सामने आ रहे हैं और इसलिए संघर्ष तेज़ होता जा रहा है, जो सामाजिक न्याय की सीमा लाँघकर वैयक्तिक न्याय तक पहुँचना चाहता है। हम सब यही चाहते भी हैं कि हमारे साथ 'न्याय' हो, इस न्याय की कई परिभाषाएँ देश और काल पर आधारित हो सकती हैं। इस संकलन की अधिकांश कविताओं की भावभूमि भी दार्शनिकता की है।