Anumatipatra
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यह उपन्यास पृथ्वी, संस्कृति, प्रकृति और मनुष्यता के टूटते तथा क्षत-विक्षत होते रिश्तों की कथा है। एक ऐसे ऐतिहासिक दौर का क़िस्सा जिसमें मनुष्य ने सभ्य दिखने की आड़ में बहुत असभ्य ढंग से अपने परिवेश को विनाश के कगार पर पहुँचाना आरम्भ कर दिया है। हर कुल्हाड़ी, चिमनी, मशीन और निवेश जैसे हाड़-मांस के जीते-जागते इन्सानों को भुला चुके हैं या उन्हें किताबी आँकड़े व जनगणना के रजिस्टर में रूपान्तरित करने पर तुले हैं। इन षड्यन्त्रों के पक्ष में आम सहमति है और इनके ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले लोग मुक़दमों और कोर्ट-कचहरी में उलझाये जाते हैं। न्यायपालिका को अन्याय करने का माध्यम बनाना आसान हो गया है। इस प्रकार यह उपन्यास फ़ैक्ट्रियों व अतिउत्पादन से उत्पन्न पर्यावरण संकट के समय सांस्कृतिक-भौतिक रूप से किसी गाँव के उजड़ जाने की कथा है, साथ ही उजड़ने की प्रक्रिया को मिले राजकीय अनुमतिपत्रों की तीखी आलोचना है। धर्म, पूँजी व वर्ग के गठबन्धन का जो जनविरोधी दफ़्तर है, उसके द्वारा जारी अनुमतिपत्रों पर भी अचूक प्रहार है। पर यह उपन्यास केवल बाहरी परिवेश की कथा नहीं बल्कि विभिन्न किरदारों के मन में जो दृढ़ वैयक्तिक चेतना, मत व मान्यताएँ हैं, उनको भी प्रकट करता है। इसके किरदार बाहरी यथार्थ की कठपुतली नहीं हैं बल्कि अपने अनुभवों से हासिल 'विज़न' से अपने प्रतिरोधपूर्ण सामाजिक व्यवहार व आचरण को व्यक्त करते हैं। उनमें आत्मसंवाद है, आत्मचेतना है और साथ ही आत्मसंघर्ष। ढूँढ़ने पर ऐसे कई लोग हमें आसपास मिल जायेंगे, और यह उपन्यास ऐसे ही उदात्त व संघर्षशील चरित्रों से हमारी मित्रता व पहचान को क़ायम करना चाहता है।