Babri Masjid Tatha Anya Kavitayein
बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ -
'बाबरी मस्जिद' की कविताएँ प्रतिबद्ध संवेदना और अध्ययनशीलता से सम्पोषित गहरी वैचारिकता से उपजी हैं। कवि की पक्षधरता उन लोगों के साथ है, जो देश और काल के हाशिये पर पड़े या दफ़न हैं। ऐसा क्यों है— यह कवि की जिज्ञासा ही नहीं चिन्ता भी है और इस क्रम में कवि के भीतर एक अनुसन्धित्सु जाग उठता है जो न सिर्फ़ देश-देशान्तर की बल्कि काल-कालान्तर की भी यात्रा करता है। इस यात्रा में कवि के सरोकार उसे सजग रखते हैं और वह देश और काल के उस हाशिये की शिनाख़्त/ पड़ताल करता है, जिस पर बुद्ध के अन्तिम शिष्य 'सुभद्र' और रघुवीर सहाय के 'रामदास' ही नहीं 'नीग्रो जॉर्ज' और 'रिगोबेर्टा मेंचू' भी दिखते हैं।
पूर्वज रचनाकारों की परछाइयाँ हर रचनाकार पर पड़ती हैं। अनिल भी अपवाद नहीं मगर कवि ने उनके रचना-संसार के बिम्बों, प्रतीकों और निहितार्थों को अपने परितः व्याप्त सामूहिक अवचेतन में अलग से चीन्हने और उन्हें अपनी चेतना में आयत्तीकृत करने का एक अलग तरह का प्रयास किया है जिससे इस संग्रह की कविताओं की गहरी और विस्तीर्ण वंशावली का भी पता चलता है और लक्ष्य का भी। कवि की स्वीकारोक्ति द्रष्टव्य है— 'मैं मुक्तिबोध का सजल-उर शिष्य होना चाहता हूँ!'
कविता में सन्दर्भों का आना एक सामान्य बात है। किन्तु इस संग्रह की कविताओं में सभ्यतागत त्रासदी और विडम्बनाओं के कई प्रसंग नामित सन्दर्भ की तरह मौजूद हैं जो पाठकों की संवेदना के साथ-साथ उनके ज्ञान को भी सम्बोधित हैं।
'उसकी उदास भावहीन आँखें पीछा करतीं
व्यस्ततम क्षणों में भी,
मानवीय पीड़ा का इतिहास
ज्यों फूली हुई लाश
रिगोबेर्टा मेंचू की
फैली हो ग्वाटेमाला से एंडीज़ तक,
दुमका-गोड्डा के आदिम जंगलों से
हमारे घरों के शयन-कक्ष तक।' —डॉ. विनय कुमार