Bari Barna Khol Do
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"बारी बारणा खोल दो -
आज़ादी के पहले देश के जिन कुछ कर्मठ भारतीयों ने देश में कृषि-क्रान्ति का सपना देखा था उनमें कृष्णस्वामी अय्यंगार प्रमुख हैं। दक्षिण भारत के एक ग़रीब घर में पैदा होने के बावजूद उन्होंने कृषि विज्ञान में देश-विदेश में अध्ययन करके न सिर्फ़ अपनी ऊँची हैसियत बनायी बल्कि जीवन भर जन-कल्याण के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते रहे। मानव सेवा उनके जीवन का लक्ष्य तथा कृषि कार्य का विकास उनके जीवन का संकल्प था।
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जूनागढ़ स्टेट को सुविधाओं से युक्त नौकरी छोड़कर सन् 1939 में कोसबाड़ में ज़मीन ख़रीदकर एक सेवाश्रम की योजना बनायी। साथ ही, वहाँ के वारली आदिवासियों के विकास के लिए काम करने लगे। कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने समाज में फैली रूढ़ियों और अन्धविश्वास का विरोध किया। इस काम में उनका साथ उनकी पत्नी जानकी ने ख़ूब निभाया। दरअसल यह उपन्यास जितना कृष्णस्वामी की गौरवगाथा बयान करता है, उससे किसी भी अंश में कम जानकी के महत्त्व की अनदेखी नहीं करता। ख़ासतौर पर सन् 1944 में अपने पति की अकाल मृत्यु के बाद जिस तरह उसने घनघोर विपत्ति में भी अपनी गृहस्थी को बिखरने से बचाया और कृषि कार्य से अपना नाता नहीं तोड़ा, वह मन पर गहरी छाप छोड़ता है। आज़ादी के आन्दोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास एक स्वप्नजीवी क्रान्तिदर्शी का जीवनचरित ही नहीं, भारतीय नारी के संघर्षों में पलते हुए जुझारू व्यक्तित्व की धूप-छाँह-भरी महागाथा भी है।
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