Bharatiya Kavyashastra Parampara Pravrit

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आधुनिक साहित्य भी रस और भाव को हृदयपक्ष तथा विचार वाग्वैदग्ध्य एवं अभिव्यक्ति को बुद्धिपक्ष के रूप में स्वीकार करता है। रस-छन्द-अलंकार तथा गुण-विवेचन रचना के आकलन के प्राचीन उपागम रहे हैं। इनका विवेचन हमें संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है। कविता ही नहीं वरन् गद्य का मूल्यांकन भी इन्हीं निकषों पर किया जाता रहा है। साहित्यिक मूल्यांकन के ये सार्वभौम तत्त्व हैं क्योंकि विश्व साहित्य में ये किसी-न-किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहते हैं किन्तु आधुनिक काव्य एवं गद्य-रचना में इनकी भूमिका धीरे-धीरे नगण्य होती जा रही है। इस गिरावट के लिए ये निकष नहीं अपितु रचना और रचनाकार ज़िम्मेदार हैं। रचना की भाषा के मूल्यांकन के लिए अब पाठ-विश्लेषण, प्रोक्ति-विश्लेषण, विसंरचक आदि नवीन फॉर्मूले तैयार किये गये हैं किन्तु यह भी उतना ही सच है कि बिना काव्यशास्त्रीय निकष के रचना में युवावस्था-सा सौन्दर्य कदापि नहीं आ सकता। साथ ही समय के बदलाव के साथ आनन्द की परिभाषा कदापि नहीं बदल सकती। परिवर्तन की यह बयार क्षणिक आवेग और उद्वेलन देकर हमें संवेदनशील तो बना सकती है, परन्तु रस-छन्द-अलंकार-रीति और गुणों के मूल्यों को तिरोहित नहीं कर सकती। भारतीय काव्यशास्त्र का अध्ययन करने वाले जिज्ञासुओं एवं विद्यार्थियों के लिए एक ही पुस्तक में शास्त्रीय विवेचन की सुविधा के साथ यह पुस्तक आपके सामने है।

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