Bhitari Banaras
काशी भारतीय संस्कृति की भरी-पूरी मंजूषा है। है काशी के आध्यात्मिक स्वरूप को बूझ पाना आसान नहीं है। यह पुस्तक ‘काशी-रहस्य' को तीन स्तरों पर उजागर करती है—काशी, शिव और गंगा। इस त्रिवेणी को यहाँ सम्प्रेषणीय और प्रभावी ढंग से पुराणों, हिन्दी साहित्य और किंवदन्तियों के माध्यम से अवतरित किया गया है। इस 'काशी' को जाने बिना 'बनारस' का भाव-बोध कदापि नहीं हो सकता।
'बनारस' के आन्तरिक और बाह्य दोनों स्वरूपों को उकेरने के लिए पुस्तक को कई खण्डों में बाँटकर रचा गया है जिसमें एक ओर बनारस के खान-पान, मेलों-त्योहारों और पान-संस्कृति का लेखक की स्मृतियों में बसा रंग-ढंग मिलेगा तो दूसरी ओर बनारसी घराने की संगीत-परम्परा और बनारसी बोली में कण्ठ-कण्ठ से फूटते लोकगीतों की रसधारा भी प्रवाहित मिलेगी और तीसरी ओर मिलेगा बनारस में मिट्टी के खिलौनों का संसार। यहाँ बनारस के चुलबुले साहित्य की झाँकी भी दिखेगी, रामलीलाओं की राम-रसभीनी तस्वीर भी और बनारसी बोली की ठसक भी।
भितरी बनारस बनारस पर एक सर्वसमावेशी पुस्तक है। बनारस को सम्पूर्णता में देखने-दिखाने का यह पुस्तक एक रचनात्मक प्रयास है जिसमें 'काशी- सत्य' के साथ-साथ कथा-रस, संस्मरण, रिपोर्ताज और विवरण की शैलियाँ घुली-मिली हैं जिससे इस पुस्तक की रोचकता और भावप्रवणता को पर लग गये हैं।
यह चित्रों से भरी ‘कॉफ़ी टेबल' पुस्तक नहीं है। इसकी प्रकृति या तो शोधपरक है अथवा स्वतः अनुभूत बनारसी भावों का चित्रांकन। चित्र इसमें भी हैं, पर पाठ को सहारा देने के लिए रखे गये हैं। काशी/वाराणसी/बनारस को जानने और कम पहचानने वाले दोनों तरह के पाठकों को यह पुस्तक ‘काशी-रस' से सराबोर कर देगी, इसमें कोई सन्देह नहीं।
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“बनारस कब, किधर से सगरो कतवार को मेरे भीतर घुस आता है, कुछ पते
धकियाते हुए
नहीं चलता। लगता नहीं कि वह ऐसा करेगा पर कर गुज़रता है। कभी आकर कान में कह जाता है कि-आसिक होकर सोना क्या रे, और जगा देता है, खींच लेता है अपनी ओर। हम एहर-ओहर तमाम करकट सहेजते होते हैं कि कहीं से धड़ाके-से आकर सब बिखेर देता है और चेता जाता है कि- घट-घट दीपक बरै लखै नहिं अन्ध है। मुझे ‘अँधेरे’ से बाहर धकिया देता है और ख़ुद अँणस-उँणसकर मेरे भीतर आ विराजता है। इतना नगीच कि उसकी एक-एक धक-धक सुनाई पड़ने लगती है। उसका ताप मुझे तपाने लगता है। स्वर गूंजने लग जाता है कि मुक्तिदायिनी काशी की गलियों में जी खोलके खरचो–कबीर, तुलसी, रैदास और कीनाराम की तरह। दे डालो सब कुछ, अपने आप को भी। ‘स्व’ को खरचके ख़त्म कर दो। ख़ुदी और ख़ुदा का फ़र्क़ ख़ुद मिट जायेगा।”
—इसी पुस्तक से