'कालम्' पढ़ना क्यों ज़रूरी है?

कालम्
‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ और ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित मलयालम के प्रमुख हस्ताक्षर एम.टी. वासुदेवन नायर का उपन्यास ‘कालम्’ आपको क्यों पढ़ना चाहिए?
60’-70’ के दशक में शहरीकरण के बढ़ते क़दम युवाओं को अपने घर से दूर करते जा रहे थे। इस बीच न सिर्फ़ परिवार की परिकल्पना बदल रही थी, बल्कि सामाजिक ढाँचे भी तब्दील हो रहे थे। इसके बीच युवाओं का आन्तरिक विरोधाभास, घर से दूर घर बसाने का सपना, प्रेम और पूँजी की खोज उनमें ‘एंग्री यंग मैन’ की पहली झलक दिखा रहे थे। ‘कालम् ‘इसी काल का दस्तावेज़ है। आइये जानते हैं ‘कालम्’ की कहानी के बारे में और पढ़ते हैं इस उपन्यास का एक अंश-
कहानी 1960 के प्रारम्भ में केरल में भूमि सुधारों और ग़रीबी के सन्दर्भ में है। सेतु माधवन वल्लुवनाड के एक परिवार का सदस्य है। वह अपनी उपलब्धियों को किसी काम न आने वाली विशेषता समझता है और जानता है कि जीवन समय की दया पर चलता है। उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ उसके परिवार की ग़रीब और उसके पिता की उपेक्षा से उपजी हैं। वह कॉलेज के हॉस्टल की आलीशान जीवनशैली के सामने ख़ुद को छोटा पाता है और उसके आगे घुटने टेक देता है। उसके पास अच्छे कपड़े और दैनिक ख़र्चों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं हैं।
वह तीन महिलाओं से मिलता है जो उसे गहराई से प्रभावित करती हैं। पहली है सुमित्रा, उसकी चचेरी बहन। इस रिश्ते को एक किशोर की फैंटसी के रूप में दर्शाया गया है जो शारीरिक मोड़ पर पहुँचती है। अगली है तंकमणि, जिससे वह शादी करना चाहता है। एक अच्छी नौकरी की कमी की वजह से वह इस सम्बन्ध में आगे नहीं बढ़ पाता है। उसे एक गाँव में विस्तार अधिकारी के रूप में नौकरी मिलती है, लेकिन उच्च अधिकारियों के साथ छोटे मुद्दों पर झगड़ों के कारण वह इसे खो देता है। वह आत्महत्या करने की योजना बनाता है, लेकिन मन बदलता है और संघर्ष करता है।
वह एक दूरदराज़ के तटीय शहर में श्रीनिवासन मुथलाली की फर्म में क्लर्क बन जाता है। यह नौकरी उसे श्रीनिवासन के पक्ष में अदालत में झूठ बोलने और उसे सज़ा से बचाने के बदले में दी जाती है। वह अपने बॉस की पत्नी ललिता श्रीनिवासन से मिलता है। वह अपने पति की उपेक्षा के कारण एक नीरस जीवन जीती है। ललिता सेतु की ओर आकर्षित होती है क्योंकि दोनों अकेलेपन का दर्द महसूस करते हैं। एक विश्वसनीय कर्मचारी के रूप में सेतु बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उठाता है और फर्म को धोखा देकर पैसे कमाता है। श्रीनिवासन एक स्ट्रोक से गिर जाते हैं और अपने कर्मचारी और अपनी पत्नी के बीच के सम्बन्धों के बारे में जान जाते हैं। सेतु श्रीनिवासन से अलग हो जाता है, ललिता उससे तलाक़ ले लेती है और यह दोनों प्रेमी एक नयी ज़िन्दगी शुरू करते हैं। इस दौरान, वह अपने माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों से दूर हो जाता है। वह धीरे-धीरे समझता है कि उच्च वर्ग का जीवन उसके लिए नहीं है। ललिता एक व्यापारी इन्द्रजीत के साथ अन्तरंग अवस्था में पायी जाती है, इसलिए विमुख हो वह अपने गाँव जाने की योजना बनाता है।
सेतु आन्तरिक संघर्ष की स्थिति में है क्योंकि उसने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि उसकी उपलब्धियाँ वास्तव में विफल हैं। उसे पता चलता है कि तंकमणि अपने बच्चों के साथ मुम्बई में रहती है और ख़ुशहाल पारिवारिक जीवन जी रही है। वहाँ उसे सुमित्रा एक परित्यक्त स्थिति में मिलती है और वह उसे बताता है कि उसने उससे प्यार किया है, लेकिन वह कहती है कि वह अकेले रहकर ख़ुश है। वह सेतु की मदद की पेशकश को ठुकरा देती है, यह कहते हुए कि सेतु में किसी के प्रति भी सहानुभूति नहीं है।
अब सेतु क्या करेगा...
पुस्तक का अंश
गीली मिट्टी से भरी पगडंडी और बड़ा बरगद का वृक्ष। बरगद के तले नारियल के मुलायम पत्ते, छोटे-छोटे डंठल तथा नारियल के छिलके पड़े हुए थे। पहले संध्या काल में अकेले मंदिर से लौटते समय बरगद के नीचे से न जाने के विचार से सिपाही के घर के आँगन से होकर भाग जाता था। जादू-टोटके के बाद दोष इसी बरगद के तले निकाल रख दिया जाता था। घर बड़ा था।
नारियल के पेड़ों से भरी उस ज़मीन पर फैले हुए उस मकान पर बड़ा गर्व था। सीखचों वाले बरामदे की ओर आँगन के आम्रवृक्ष की शाखाएँ पहुँचती थीं।
लेकिन वह उस घर में मेहमान था।
सुनसान आँगन को पार कर ड्योढ़ी की ओर बढ़ते समय किसी को पूछते सुना, “कौन आ रहा है?”
धूप में सूखे कपड़ों को उठाये ड्योढ़ी की ओर आती स्त्री के लिए रास्ता छोड़ खड़ा रहा।
“सेतु हो न? हे भगवान्! सेतु को मैं पहचान नहीं सकी।”
नलिनी दीदी थी।
श्वेत किनारी वाली धोती पहने खड़ी नलिनी दीदी बिलकुल दुबली हो गयी थी।
छोटी बुआ भी बरामदे पर आई। पिताजी की बहनों को देख बड़ा आनंद आया। सवेरे-सवेरे राजगृह के बाँध में स्नान करके चंदन लगाकर नया परिधान पहने उन स्त्रियों को देखने में भव्यता का आभास मिल रहा था।
कछोटी बाँधे मैली तीन गज की धोती का छोर बाहर निकाले घूमती माँ और मौसी को याद कर लज्जा आ रही थी।
“अब कॉलेज में प्रवेश पाकर बड़ा आदमी बन गया है न! फिर भी कभी-कभार इस तरफ नहीं आ सकता क्या?”
“बड़ी बुआ कहाँ हैं?”
“ माँ स्नान करने गई है। वह इधर दे दो।” नलिनी दीदी ने कागज का पुलिंदा हाथ में ले लिया। पाँव धोने के लिए घड़े में पानी ला रखा। कुशलान्वेषण करते बैठते समय बड़ी बुआ आ पहुँची।
अँधेरे से भरे उस कमरे में भीगे कपड़ों तथा डेटॉल की गंध भरी हुई थी।
भाभी ने अपने बिस्तर पर से सिर उठाकर पूछा, “सेतु, माँ क्यों नहीं आई?”
“फिर कभी आएगी। दाऊ जब घर आएँगे तब उनके साथ इधर आएगी।” मैले कपड़ों में रखे शिशु को, पहरे पर बैठी नाइन ही बाहर प्रकाश में ले आई। उसके अर्धमुद्रित नेत्र प्रकाश से डर रहे थे।
“यह कौन आया है, देख सेतु चाचा है न?”
“उण्णि और श्यामला कहाँ हैं?
“बड़े भाई के साथ गए हैं। इधर रहने पर मुझे आराम से लेटने भी नहीं देते।” भाभी बोली, “ऊपर का दरवाजा खुला है क्या माँ? कुर्सी मोड़कर रखी हुई है। पलंग के नीचे उसके दंड होंगे।”
ऊपर का वह कमरा भाभी का था। बंद किवाड़ों को नलिनी दीदी ने खोल दिया।
“सेतु बैठो, बस में आए हो न?”
किवाड़ के जालकों को पकड़े खड़े रहते समय बड़े दर्पण में अपना प्रतिबिंब दिखाई दिया। अगले कमरे में दाऊ तथा भाभी का फोटो फ्रेम करके रखा हुआ था।
सफेद थाली में कटे आम तथा गिलास में चाय लिए बड़ी बुआ आई। नलिनी दीदी ने बिस्तर पर रखा बिछावन झाड़कर फैला दिया।
“रवि कहाँ है?”
“बाहर गया हुआ है। अभी आ जाएगा।”
छोटी बुआ का पुत्र रवि और सेतु समवयस्क थे। बचपन में दोनों मित्र थे। तीन महीने के फर्क के कारण वह सेतु को दाऊ पुकारा करता था। पाँच वर्षों के अंतराल में नलिनी दीदी कितना बदल गई है! बालों की कमी के कारण इधर-उधर खोपड़ी दिखाई दे रही थी। कुहनी तक चूड़ियाँ पहनने वाली बाहें अब खाली पड़ी थीं। मिट्टी में मुरझाए पड़े फूल के समान वह निस्तेज थी।
सेतु के कॉलेज जाने का समाचार पाते ही एक पत्र लिखने का विचार था, पर नहीं लिख पाई।
“नलिनी दीदी ने पुनः परीक्षा नहीं दी?”
नलिनी दीदी सिर झुकाए हँसने लगी।
“ परीक्षा!...धोने को दिए कपड़ों का हिसाब लिख रखने के लिए पेंसिल उठाते ही आलस्य घेर लेता है। “वह सब खतम हुआ न!”
सेतु चुपचाप खड़ा रहा।
“सेतु पास होकर नौकरी करते समय...।”
नलिनी दीदी मुस्कराने की चेष्टा करते हुए मुख मोड़ खड़ी रही।
“वही मैं लिखना चाहती थी। एक दिन एकाएक मन में आया। दीदी को मुझे साथ ले जाने में संकोच है। सेतु जब बड़ा आदमी बनेगा, अभी नहीं, बच्चों की देखभाल करने के लिए जब आया की जरूरत पड़ेगी, तब मुझे बुला लेना।”
सेतु जब घबराया-सा खड़ा था, तब कंबल तथा तकियों के नये गिलाफ लिए वह बाहर चली गई। कपड़े लिए आते समय भी सेतु खिड़की से बाहर की ओर देखता खड़ा था।
“नलिनी दीदी पागल नहीं है। डरने की जरूरत नहीं है। सेतु, कॉलेज में पैंट पहनकर जाते हो न?”
“ मेरे पास पैंट नहीं है।”
“आज कैलेंडर देखते समय मालूम हुआ–आज ईस्टर है। कण्णूर में रहते...”
एकाएक वह रुक गई। सिर से किसी चीज को हटा देने के श्रम में एक पल रुककर फिर फर्श की ओर देख हँसने की चेष्टा की। “मैं क्या-क्या कहे जा रही हूँ, है न? सेतु, चलो कहीं चलकर बैठें...”
तब नीचे सारी दुनिया को हिलाती-सी पुकार उठी,”सेतु भैया! रवि आ गया है।”
सिर झुकाए नलिनी दीदी के बाहर चले जाने पर सीढ़ियाँ तथा छत को कंपित करते हुए रवि के डग भरने की आवाज सुनाई दी।
रवि को देखकर विस्मय हुआ। मुझसे भी बड़ा हो गया! देहाती दर्जी के सिए कुर्ते का कॉलर अधिक लंबा था। पसीने से तर हो रहा था। मैली बनियान को बाहर दिखाते हुए उसने कुर्ते के सारे बटन खुले ही छोड़ रखे थे। रवि कर्कश हो चुका था। पत्थर जड़ा कान का कुंडल छोड़ा नहीं गया था।
मोटा हाथ पीठ पर पड़ते ही घबरा गया।
“सेतु भैया...सेतु भैया से अधिक लंबा हो गया हूँ मैं। है न?”
रवि ने नजदीक आकर लंबाई देखी। बैग खोलकर तलाशी करना था उसका अगला कार्यक्रम। इस्त्री करके रखे गए कुर्तों को खिड़की के पास ले आकर देखा और उनका मूल्य जानना चाहा।
“इस बार पार हो जाओगे न?”
“सेतु भैया, पढ़-पढ़कर तंग आ गया हूँ। इस बार पास नहीं किया तो प्रधानाध्यापक की अँतड़ी बाहर निकाल फेंकूँगा। सेतु भैया, यहाँ अब सिनेमा खुल चुका है। बाँध के समीप है। सेतु भैया पालक्काट में रहते बार-बार सिनेमा देखते होंगे। है न?”
“कभी-कभी।”
“आज हम फिल्म देखने चलेंगे।”
“ कौन-सी फिल्म लगी है?”
“ गुलबकावली। अच्छी फिल्म है। भेदिए के साथ फाइट है।”
“सोचेंगे।”
“क्या सोचना है।”
पलंग पर बैठकर रवि ने अपने अध्ययन की बात बताई। रवि इतना ही चाहता है कि वह किसी-न-किसी प्रकार दसवीं पास हो जाए। घर का कामकाज देखने के लिए वही एक पुरुष था। घर के अहाते में बेचने के लिए नारियल हैं। तालाब के किनारे खेती है। दोनों ने एक साथ बैठकर भोजन किया। उसके बाद रवि पुनः बाहर चला गया। रेंहट के सहारे सिंचाई करने की जगह जाना था उसे। नारियल के पत्ते मोल लेने के लिए आदमी आने वाला था। उन्हें गिनकर देना था। रवि यह कहकर गया कि उसके आने में देर लगेगी।
बड़ी बुआ और छोटी बुआ दोनों बार-बार आकर बातें करती रहीं। सायंकाल चाय लेकर नलिनी दीदी आई थी। खाली चाय का गिलास गलियारे पर रखकर नलिनी दीदी दरवाजे के पास फर्श पर बैठ गई। मुख छिपाए बायें हाथ की उँगलियों से बालों को सुलझाती हुई मौन बैठी नलिनी दीदी को देखकर मन अस्वस्थ हो उठा। नगर की सीमा पर टीपू सुल्तान के बनवाये दुर्ग की कथा आरंभ करते ही उसमें अपनी रुचि दिखाती हुई उसने अपना सिर ऊपर उठाया। उस दुर्ग के अंदर-बाहर जाने के लिए एक गुफामार्ग था। उसके बारे में सेतु ने कहना आरंभ किया, तो नलिनी दीदी की आँखों में एक चमक दिखाई देने लगी।
दुर्ग के अधिकारी सेनापति के एक लँगड़ी लड़की थी। सुंदरी थी। सहेलियों के सहारे ही वह चल पाती थी। दिन-रात एकांत में सितार वादन में लगी अपनी बेटी को देखकर सरदार खान आह भरता रहता था। एक दिन दुर्ग के भीतर एक कैदी आया। उस युवक के बारे में बेटी ने काफी कुछ सुन रखा था। उसने सहेलियों के सहारे आकर उसे देखा। एक रात सबकी आँखें बचाकर गुफा की चाबी उसने प्राप्त की और लँगड़ाते-लँगड़ाते वहाँ तक पहुँचकर उसे वहाँ से निकलने में सहायता पहुँचाई। दोनों निकल ही रहे थे कि पहरेदारों को पता चल गया। उन्होंने भगोड़ा कैदी समझकर दोनों पर गोलियाँ चला दीं, जिससे वहीं उनकी मृत्यु हो गई। उसी दिन बंद कर दिया गया वह गुफामार्ग।
दुर्ग की कथा की समाप्ति पर नलिनी दीदी ने पूछा,“कथा वास्तविक है या कल्पित?”
“इतिहासकार कहते हैं कि यह कथा वास्तविक है।”
नलिनी दीदी फिर मौन हो गई। दीवार के सहारे, बंद नेत्रों को साफ करती हुई क्षणभर बैठने के उपरांत नींद से जाग उठी-सी नलिनी दीदी ने पूछा, “कथा में उस कैदी का नाम क्या दिया है?”
“मैं नहीं जानता।”
“हिंदू था?”
“ होगा।”
“हूँ!”
“नलिनी दीदी, सिनेमा देखने जाया करती हैं?”
“सिनेमा, बड़ी बात! पहले कण्णूर में जब थी...” एकाएक अपने कथन को उसने नियंत्रण में रखा।
नगर में, दुर्ग की छाया में शाम के वक्त जहाँ बैठते थे उस मैदान के बारे में बताया। कक्षा की लड़कियों के बारे में भी बताया। उसने नलिनी दीदी को पूर्ववत् हँसते हुए एक बार देखना चाहा।
तभी किसी के सीढ़ियाँ चढ़ आने की आवाज सुनाई पड़ी। बाहर के दालान में चूड़ियाँ खनक उठीं।
“ नलिनी दीदी, नहाने नहीं आती?”
“तंकमणि, यह गिलास और थाली नीचे ले चलो।”
डरी हुई दृष्टि के साथ कमरे में आई वह लड़की दरवाजे पर खड़ी हो गई।
सफेद ब्लाउज तथा हल्के हरे रंग का लहँगा पहने दुबली लड़की।
“ तू सेतु को नहीं जानती?”
गले की स्फटिक माला चबाती हुई उसने सिर हिला दिया।
सेतु दूर पर देखे एक अस्पष्ट रूप को पहचान पाने की कोशिश में था।
“सेतु ने तंकमणि को नहीं देखा है? पुष्पोत्तु वाली मौसी के घर की है।
“शिवमंदिर में मनौती पूरा करने के लिए वह सवेरे पुष्पोत्तु से आई है।
“कौन-सी कक्षा में है?”
“नौवीं में।”
उसके बाहर निकल जाने पर सेतु ने नलिनी दीदी से पूछा, “पुष्पोत्तु गोविंदन् मामा तिरूर में ही हैं न?”
बचपन में माता-पिता के साथ एक बार पुष्पोत्तु गया था। पिताजी की मौसी बँटवारे के समय बड़ी तंगी में थी। नौकरी करने वाले लड़के नहीं थे। बड़ी बेटी का विवाह हुआ था दस रुपये वेतन पाने वाले एक मास्टर के साथ। पर वेतन बराबर न मिलने के कारण सेठ से झगड़ा करके वहाँ से चला गया। तिरूर में एक चेट्टियार (एक जाति विशेष) के यहाँ लेखाकार बन गया। फिर मिल में अच्छी नौकरी मिली और खूब पैसे वाला बन गया। माँ मौसी को अधिक चाहती थी।
गोविंदन् मामा से सब डरते थे। आज भी जिद्दी हैं। गाँव आने पर सवेरे से पीना शुरू कर देते थे। बेटे भी नजदीक जाते हुए डरते थे। पर हर छुट्टी पर आते समय बहुत पैसे लाते थे। तिरुमनयूर के निजी घर तथा ससुराल में काफी पैसे खर्च करते थे।
पहले छुट्टियों पर आते समय गोविंदन् मामा घर पर आते थे। माँ मुर्गी का मांस पकाती थी। पंकोटा के यहाँ आदमी भेजकर शराब मँगा लेते थे।
“वह कुछ भी बोले, ठीक है। पर वह मेरे सामने आते ही झींगुर बन जाता है।” गोविंदन् मामा के चले जाने पर माँ सबके सामने कहा करती थी। विदा लेकर चलते समय हाथ में सुगंधित एक नोट रखकर जाने का वह दृश्य आज भी याद आता है।
पिछले कुछ वर्षों से गोविंदन् मामा घर पर नहीं आए।
आनमला के बाग की नौकरी छूट जाने से नौकरी की तलाश में पिताजी तिरुचूर पहुँचे। एक महीने तक साथ रहे। अंत में बिगड़कर अलग हो गए। उसके बाद पिताजी ने आकर सारा हाल सुना दिया। गोविंदन् मामा ने घर में कामकाज के लिए दो युवतियों को लाकर रखा था। इसी कारण पत्नी तथा बच्चों को साथ रहने नहीं देते थे।
कॉलेज में भर्ती होते ही यह सोचा था कि गोविंदन मामा को एक पत्र लिखते ही वे पैसा भेज दिया करेंगे। लेकिन पिताजी से झगड़ बैठने के कारण हठीले गोविंदन् मामा के नाम पत्र लिखने की हिम्मत नहीं हुई।
उण्णि के अन्नप्राश के लिए पुष्पोत्तु से मात्र दीदी आई थी। सायंकाल वापसी के समय उन्होंने कहा, “घर आओ न! वहाँ बच्चे वगैरह सभी हैं।”
शर्मिंदा खड़ा रहा।
“परमेश्वर, सेतु को क्या मैं ले जाऊँ?”
दाऊ ने कहा, “उसका कॉलेज है। आज ही मेरे साथ वापस जा रहा है।”
इस कारण नहीं गया।
पाँच या छह साल की उम्र में वहाँ गया था। गले के धागे में सोने की एक कंठी गूँथती, पाँव पसारे बैठती पुष्पोत्तु मौसी के बारे में एक हल्की-सी याद बनी रही है। भारी शरीर था उसका। बहुत मुश्किल से वह चल पाती थी। अहाते के बाहर पत्तों से आच्छादित मकान के चारों ओर बच्चों के साथ आँखमिचौनी खेलती थी। वह मकान गिराकर बाद में नया बनवाया गया था।
नीचे आया तो देखा कि अभी नलिनी दीदी और तंकमणि नहाने के लिए नहीं गई हैं।
“सेतु को नहीं नहाना है?” बड़ी बुआ ने बरामदे पर आकर पूछा।
“संध्या होने दीजिए।”
“कोलोत्तु के बाँध पर जाना। स्वच्छ जल है।”
“नहीं, मैं तालाब में स्नान करूँगा।”
छात्रावास में स्नानागार में स्नान करने की आदत पड़ गई। इस कारण खुली जगह पर स्नान करते हुए लज्जा अनुभव होने लगी।
छोटी बुआ ने पूछा, “एक गिलास काफी बना दूँ?”
“नहीं बुआ, अभी तो पी थी न! रवि क्यों नहीं आ रहा है?”
“उसके आने का समय अभी नहीं हुआ है। खजूर तोड़ लाने को कहा है। खजूर के बीज का पकवान क्या सेतु को पसंद है?”
“सब कुछ पसंद है। यहाँ आने के बाद सारा संसार पसदआ रहा है।”
फर्श पोंछती बैठी छोटी बुआ बोली, आज मंदिर में निरमाला (मंदिर में अलंकार के लिए) है। भोजन के बाद हम जाएँगे, चलोगे?”
“चलेंगे।”
संध्याकालीन धूप में केरवृक्षों के बीच सफेद बालू चमक रही थी। उत्तरी सीमा के आम्रवृक्ष के तले कौए उसके फलों पर टूट पड़ रहे थे। नारियल के पत्तों से छनकर मंद पवन चल पड़ा था। दूर समुद्र का अव्यक्त गर्जन सुनाई दे रहा था। मन में एक मधुर पीड़ा अपना मस्तक उठा रही थी। ऊपर बरामदे की घड़ी बज उठी तो ध्यान दिया : छह बजे हैं।
भीतर कहीं नलिनी दीदी तंकमणि से बात कर रही थी। वह लड़की कितने मंद स्वर में बोलती है!
“दीया...”
बरामदे के सोपान पर खड़ी होकर तंकमणि ने कहा तो सेतु ने मुड़कर देखा। उसने दीया ऐसे पकड़ा मानो उसकी वंदना के लिए पकड़ रही हो। संदेह के साथ खड़ा रहा, वंदना नहीं की। कॉलेज में पढ़ रहे बड़े आदमी का इस प्रकार वंदन करना अनुचित है न!
दीए की द्युतिमय पीली ज्योति में उसके माथे पर भस्म का तिलक दिखाई दिया।
कोलविलक्कु (लौहदण्ड वाला एक प्रकार का दीपक, जिसे मंदिर के उत्सव के समय नायर-स्त्रियाँ अपने हाथ में लेती है) से बत्तियाँ लेकर उसने दक्षिणी अहाते के, दुपहरिया के तले दीप जलाया।
और आँगन के कोने से भीतर प्रवेश करते हुए कुछ स्मरण करके रुक गई।
“सेतु भैया अभी स्नान करेंगे क्या?”
“रवि को आ जाने दो।”
उत्तर के आँगन से चली आई नलिनी दीदी सोपानशिला पर बैठ गई।
“क्यों, सिर में दर्द है? संध्या होते ही सिर में दर्द आरंभ हो जाता है। रातभर सोने नहीं देता। सेतु, जाके स्नान कर लो। मौसी बोल रही थी कि सेतु ‘निरमाला’ देखने जा रहा है।”
“हाँ, बुआ ने कहा था।”
“तंकमणि, दक्षिणी कमरे में साबुन और कछोटा है। जरा लाकर दे दो।”
अंदर कुर्ता उतारकर बाहर निकलते समय कछोटे से तन को ढक लिया। आँगन में उतरने पर रवि का स्वर सुनाई पड़ा, “सेतु भैया, मैं भी स्नान करने आ रहा हूँ।”
चेरुमन् बालक के सिर पर से सामान उतारकर उसे पैसे देकर भेज दिया। उसे सवेरे जो काम करने थे, उनका पुनः स्मरण दिलाया। माँ तथा मौसी से नारियल के व्यापारी का हिसाब माँगा। सेतु आश्चर्य के साथ देखता रहा। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाला रवि बिलकुल घराने का मुख्तार हो चुका था।
कुर्ता, बनियान और लुंगी को नलिनी दीदी के सामने फेंककर कछोटा मात्र बाँधकर हवा में भुजाओं को घुमाते हुए रवि ने कहा, “ऐ लड़की, मुझे भी जरा तेल दे देना।”
चिक के पीछे छिपकर खड़ी तंकमणि का मुख सेतु ने नहीं देखा।
मन में आया, असभ्य है, सुना नहीं इस तरह ‘लड़की’ पुकारता हुआ!
बाँध की तरफ जाते हुए रवि ने पूछा, “सेतु भैया को कॉलेज में अभी कितने साल पढ़ना होगा?”
“और कई साल लगेंगे, हारना भी नहीं है।”
“सेतु भैया हार जाएँगे! अच्छी बात हुई! मैं एक व्यापार करने की योजना बना रहा हूँ। पंचायत के दफ्तर के पास दो कमरे देख चुका हूँ। नौकरी मेरे अनुकूल नहीं है।”
“नौकरी क्यों? नारियल हैं, चावल है। जिसके पास ये सब नहीं है, उसे ही नौकरी के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं।”
“सेतु भैया जब नौकरी करेंगे, तब मैं देखने आऊँगा।”
वह समय कितनी दूर है, सेतु ने सोचा।
बाँध पर हाथी नहलाने के घाट पर आदमी नहीं थे। वहाँ उतर पड़े। पानी जरा तप्त था। मँझधार गले तक गहरी थी। उस तरफ खपरैल से आच्छादित हम्माम में लालटेन के प्रकाश में स्नान निरत ब्राह्मणों के ऊँचे स्वर सुनाई दे रहे थे।
“ तुम्हारी कक्षा में कितने विद्यार्थी हैं?”
“चालीस-पैंतालीस हैं। मुझे लज्जा आती है। सबके सब छोटे लड़के हैं।”
तंकमणि दूसरे डिवीजन में है, यह अच्छा हुआ।”
“लड़कियाँ नहीं हैं?”
“आठ-दस हैं, सब बदमाश हैं।”
जान-बूझकर विषय को लड़कियों की ओर केंद्रित किया। रवि को उसमें जरा भी रुचि नहीं थी। वह पश्चिम दिशा के मंदिर के तालाब की मछलियों तथा फाटक के पास गोली से उड़ा देने लायक बरगद से लटकती चीलों के बारे में बोलता रहा। बीच-बीच में स्मरण दिलाया, “सिनेमा जाना है।”
स्नान करके घर आए तो दालान में लालटेन के प्रकाश में भोजन के लिए केले के पत्ते रखे हुए थे।
भोजन के बाद आँगन में टहलते हुए रवि ने पूछा, “सेतु भैया सिगरेट पीते हैं?”
“हाँ, क्यों?...”
“नहीं, यों ही पूछा।”
“बीच में कभी होस्टल में दावत होती है तो सिगरेट भी चल जाती है। वैसे आदत नहीं बनी है।”
“मैं कल लाकर दूँगा।”
सेतु ने कुछ नहीं कहा।
छोटी बुआ ने आकर पूछा, “सेतु नहीं जा रहा है?”
“माँ पागल है। निरमाला के लिए सेतु भैया को क्यों ले जाना है? हम सिनेमा देखने जाएँगे। प्रसूति के कारण मनाही के दिनों में कोई मंदिर जाता है?”
“अरे, तू मुझे सिखा रहा है? हम मंदिर के भीतर कहाँ जा रहे हैं?”
“फिर मैं और तंकमणि मात्र जाएँगे?”
रवि को बुलाया।
“आओ, हम जाकर आएँ।”
“हमारी प्रतीक्षा न करना।” रवि धीरे से बोल रहा था,” माँ को जाने दें। हम तो सिनेमा जाएँगे।
रवि को निराश करना पड़ा। इस्त्री किया हुआ चमकदार पॉपलीन कुर्ता पहन लिया। दिन में पहन रखी लुंगी मैली नहीं थी। फिर भी उसे बदल डाला। भाभी के काँच के डिब्बे से पाउडर निकालकर मुख पर लगाया। भाभी के कमरे के दरवाजे पर जाकर बोला तो उसने पूछा, “कुछ चिल्लर चाहिए क्या?”
“नहीं तो!”
“ टॉर्च लेकर जाओ।”
पगडंडी पार करने पर धूल से भरी राह थी। बाजार तथा बरगद को पार करने पर नारियल के झुंडों के बीच से चली जाती लंबी राह विजन थी। आगे जाती छोटी बुआ की बातचीत माँ को लेकर थी। बीच में कभी माँ के आने से क्या होता है? कम-से-कम आस-पास के लोगों की संतुष्टि के लिए उसे आना था। हम लोगों ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा।
बगल से चल रही तंकमणि के कदम भरने का ढंग देखता हुआ टॉर्च का अनुसरण कर रहा था। फूलों भरी दावनी ओढ़े, बालों को दो भागों में गूँथे तंकमणि बड़ी दिख रही थी। बालों के एक कोने में जुही की माला गूँथ रखी थी, जिसकी सुगंध फैल रही थी।
मशाल के प्रकाश में चलकर आई स्त्रियों का एक दल छोटी बुआ को साथी के रूप में मिला।
“यह कौन है?”
–“सेतु है न! बड़े भाई का मँझला बेटा। आजकल पालक्काट कॉलेज में पढ़ रहा है। आज ही आया है।”
उसने जान-बूझकर अपने चलने की गति धीमी कर दी। जरा पीछे रह गया। तंकमणि स्त्रियों के दल के साथ जाने की उतावली नहीं दर्शा रही थी।
“ सावधानी से चलो। पत्थर हैं।”
सेतु ने छाया में ऊपर मुख उठाए चल रही उसकी दमकती आँखों को देखा।
कुछ-न-कुछ बोलने की इच्छा हुई।
संपूर्ण सुगंध को अपने में समेटने वाली एक मुकुलित कली है यह लड़की, ऐसा भान हुआ।
–यही है कविता।
मेघ छन गए। आकाश एकाएक प्रकाशित हो उठा। स्निग्ध ज्योत्स्ना छिटक रही थी।
इस समय सुमित्रा का स्मरण क्यों हो आया? स्वयं को डाँटा।
सुमित्रा मेरी कोई नहीं। पढ़ी गई कविताओं के माध्यम से स्वप्न में रूपायित सुंदरी यहीं, मेरे बगल में है।
नारियल के तने का पुल पार करते समय कहा, “सावधान, हाथ पकड़ लो।”
कोमल मृदुल उँगलियाँ। पाउडर तथा जुही के फूलों की सुगंध।
उस पार पहुँचने पर भी हाथ नहीं छोड़ा।
ऊपर खुला स्वच्छ आकाश। नीचे स्निग्ध ज्योत्स्ना की नदी के प्रवाह के साथ-साथ राह। दूर मंदिर में सुनाई पड़ने वाला घोष हृदय की धड़कन के समान बुलंद होता जा रहा था।
संध्या समय विकसित जुही के फूलों की सुगंध का आस्वादन करते हुए उसका हाथ पकड़कर चलते समय उसे लगा :
यही जीवन का क्षण है।
इस क्षण की मैं प्रतीक्षा कर रहा था।
–ज्योत्स्ना, सुगंध और घोष का आयोजन कर यह संसार क्या मेरी प्रतीक्षा कर रहा था?
तेरी भी।