Buniyaad - 3
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“ ‘बुनियाद’ अगर सीधे शब्दों में कहें तो हिन्दुस्तान की आजशदी के साथ हुए बँटवारे में सरहद के इस पार आ गये लोगों की दास्तान हैµ उनकी ‘बुनियाद’ की यादगार, लेकिन दारुण गाथा। ‘बुनियाद’ इतिहास नहीं है, न ही उसका वैसा दावा रहा, बल्कि वह स्मृति के सहारे रची गयी कथा है। स्मृति, जो सामूहिक है- सरहद के इस और उस पार। उसकी इसी सामूहिकता ने उसे बेजोड़ बनाया और ऐतिहासिक भी। ‘बुनियाद’ का ताना-बाना भले ही इतिहास से जुड़ी स्मृतियों के सहारे बुना गया है, लेकिन उसकी सफलता का भी इतिहास बना। ‘बुनियाद’ डेढ़ सौ से भी ज्यादा कड़ियों तक चला और अपने समय में सबसे ज्यषदा दिनों तक सफलतापूर्वक चलनेवाला धारावाहिक था। वे भारत में टेलीविज़न की लोकप्रियता के शुरुआती दिन थे। तब भारत में टेलीविज़न और दूरदर्शन एक-दूसरे के पर्याय समझे जाते थे। ऐसे बहुतेरे लोग मिल जाएँगे, जो यह कहते पाये जा सकते हैं कि उन्होंने ‘बुनियाद’ देखने के लिए ही टेलीविज़न ख़रीदा। ‘बुनियाद’ इस कारण भी याद रहता है कि उसकी पारिवारिकता, प्रसंगों की मौलिकता और समकालीनता ने कैसे उसके किरदारों को घर-घर का सदस्य बना दिया था। मास्टरजी, लाजोजी, वृशभान, वीरांवली जैसे पात्रा लोगों की आपसी बातचीत का हिस्सा बनकर ‘टेलीविज़न दिनों’ के आमद की सूचना देने लगे थे। ‘उजडे़’ हुए परिवारों की ‘आबाद’ कहानी के रूप में जिस तरह इस कथा का ताना-बाना बुना गया था, उसमें लेखकीय स्पर्श काफ़ी मुखर था। इसी धारावाहिक के बाद इस तरह की चर्चा होने लगी थी कि टेलीविज़न लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति का पर्याप्त मौका देता है, कि यह लेखकों का माध्यम है। मनोहर श्याम जोशी टेलीविज़न के पहले सफल लेखक थे। ऐसे लेखक जिनके नाम पर दर्शक धारावाहिक देखते थे। उस तरह से वे आखि़री भी रहे। टेलीविज़न-धारावाहिकों ने लेखकों को मालामाल चाहे जितना किया हो, उन्हें पहचान विहीन बना दिया। मनोहर श्याम जोशी के दौर में कम-से-कम उनके लिखे धारावाहिकों को लेखक के नाम से जाना जाता रहा। ‘बुनियाद’ उसका सफलतम गवाह है। टेलीविज़न धारावाहिक के पात्रों से दर्शकों का अद्भुत तादात्म्य स्थापित हुआ। ‘हमलोग’ की बड़की को शादी के ढेरों बधाई तार मिले थे, तो बुनियाद के दौरान लाहौर में लोगों ने यह अनुभव किया कि हमारा पड़ोसी हिन्दू परिवार लौट आया है।” -प्रभात रंजन “ ‘बुनियाद’ की कहानी एक परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी है। एक ऐसा परिवार, जो विभाजन के समय लाहौर में भड़क उठे दंगों की तबाही में उजड़ने-बिखरने के बाद, पाँच दशकों तक समय के थपेड़ों का मुकषबला कर आज फिर से खु़शहाली की मंजिल तक पहुँचा है। जब ‘हमलोग’ बन रहा था, तब एक बार मनोहर श्याम जोशी से मुलाकात हुई थी। बडे़ काबिल और पढे़-लिखे आदमी लगे। जब ‘बुनियाद’ की बात आयी तो सबसे पहले उन्हीं का ख़याल आया।” -जी. पी. सिप्पी (बुनियाद के निर्माता)