Dari Hui Ladki
किताबों के बारे में फ्रांसिस बेकन की सुविख्यात उक्ति है, 'कुछ किताबें महज़ आस्वाद के लिए होती हैं, कुछ को भकोस लिया जाना चाहिए, लेकिन सफे-दर-सफे गुणते हुए उन्हें आत्मसात् कर लेने लायक कुछ ही किताबें होती हैं।' ज्ञानप्रकाश विवेक के इस उपन्यास डरी हुई लड़की को हिन्दी साहित्य की ऐसी ही तीसरी बेशक़ीमती श्रेणी में रखा जाना चाहिए। दरअसल, इस उपन्यास को पढ़ चुकने के बाद हम वही नहीं रह जाते जो हम थे। 'डरी हुई लड़की' एक आम पाठक को स्त्री और उस पर हुए अत्याचारों को देखने और समझने की उसकी सलाहियत को आईना तो दिखाती ही है, एक संवेदनशील नज़रिये में भी दृष्टि के अनदेखे आयाम जोड़ती है। किसी पात्र और परिवेश के सकर्मक और विश्वसनीय चित्रण के दृष्टिकोण से आत्म-अनुभूति और सह-अनुभूति के अन्तर पर काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा-कहा गया है। मगर इन्सानियत और संवेदना के जाविये पर जाकर यह अन्तर धूमिल हो जाता है। इस उपन्यास में ज्ञानप्रकाश विवेक भाव-युग्म के इसी नुक़्ते से शुरू कर एक बलत्कृत युवती की व्यथा का ऐसा सार्वभौमिक वितान रचते हैं कि हृदय हाहाकार कर उठता है।