Deewar Ke Pichhe
दीवार के पीछे -
इस पाखण्डी समय के सामने संवेदना निरन्तर बेचैन रहने को अभिशप्त है, अतः कथाकार की रचनाकुलता जीवन को वैचारिक सहजता व कृतित्व की आत्मीयता में समझने का प्रयास करती है। उर्मिला शिरीष प्रयोग और कलात्मकता के नाम पर 'कंटेट' की बलि नहीं देतीं, न अपने ग़लत के समर्थन में तर्कों के आयुध तानती हैं, वह अमूर्तन अस्पष्टता व वैयक्तिकता की परिधि के आगे जीवन को युगीन सन्दर्भों के साथ ठोस धरातल पर परखने का जो उद्यम करती हैं, उनका वही बोध उन्हें समकालीनों से अलग महत्त्व देता है... उनकी रचना सन्तुलित आधुनिकता का प्रारूप बनाती है... विश्वास जगाती है। जैसे 'दीवार के पीछे' कहानी दैन्य, पराजय या पलायन से ग्रस्त, निराशा से अभिक्रान्त कहानी नहीं है। वह एक व्यापक संसार की ओर आत्म का विस्तार करती है।
पूँजीवाद ने चिकनी सड़कों, बंगलों और कॉलोनियों में दमक व दिखावे की ललक पैदा करते हुए एक ख़ास क़िस्म के 'प्यूरिटन' समाज की रचना की है जहाँ जाति और पन्थ को वर्गीय सदाशयता की ओट देकर थोड़ा-सा पीछे कर दिया जाता है।
उर्मिला शिरीष अपनी कहानियों में बहुत आहिस्ता से इस ओर इंगित करती हैं तथा यह छिपाती नहीं कि वह भी इस वर्ग का एक हिस्सा हैं। इसीलिए इस भद्रलोक द्वारा 'सुख' में लात मारने का छद्म नहीं रचतीं। यही वह ईमानदारी और रचनात्मक कौशल है, जो लेखक को आसपास की दुनिया को अन्तरंगता व पूरी परिपार्शिवकता में देखने और ज़ाहिर करने का साहस देता है।—महेश कटारे