Antim Dashak Ki Hindi Kahaniyan : Samvedana Aur Shilp

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‘अन्तिम दशक की हिन्दी कहानी: संवेदना और शिल्प’ नीरज शर्मा की पहली आलोचना-कृति है। आलोच्य युग की हिन्दी कहानी की गति-प्रगति को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ अपने व्यापक सामाजिक सरोकारों के चलते एक नये तरह की मानवीय संवेदना से जुड़ी दिखाई देती हैं और इस अर्थ में वह अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं। नीरज शर्मा ने अपनी इस पुस्तक में यह दिखलाने की कोशिश की है कि ये कहानियाँ अपने समय, समाज एवं उसमें रहने वाले व्यक्तियों-आम एवं खास दोनों-की गहरी पड़ताल तो करती ही हैं साथ ही जीवन एवं जगत् की, व्यक्ति एवं समाज की तथा व्यवस्था की अनेकानेक स्थितियों-परिस्थितियों एवं समस्याओं को प्रस्तुत करते हुए उनके कारणों को भी खोजने का प्रयास करती हैं। हिन्दी कहानी में आने वाले बदलाव के विविध बिन्दुओं की ओर संकेत करते हुए नीरज शर्मा ने यह दिखलाने की कोशिश की है कि अन्तिम दशक की कहानियों में उनका युग-परिवेश और युग-परिस्थितियाँ ही जीवन्त हुई हैं लेकिन ये कहानियाँ सिर्फ यथार्थ की प्रस्तुति मात्रा नहीं हैं बल्कि संवेदना और शिल्प के धरातल पर हस्तक्षेप की प्रक्रिया से गुजरती भी दिखाई देती हैं। नीरज शर्मा ने अपनी गहरी सूझबूझ और आलोचना-दृष्टि का परिचय देते हुए संवेदना और शिल्प के सैद्धांतिक पहलू पर विचार करने के साथ ही उनके कारक तत्त्वों की भी सूक्ष्म पड़ताल की है और उन्हीं के आलोक में संवेदना के उन नये धरातलों को उद्घाटित किया है जो इस दौर की कहानियों को अलग पहचान देते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्तिम दशक की कहानियाँ समय एवं समाज की चिन्ता को, व्यक्ति एवं व्यवस्था की असलियत को तथा समसामयिक अनेकानेक संदर्भों को गहराई से पकड़ती हैं। समाज हो, राजनीति हो, धर्म हो, सांस्कृतिक विघटन का सवाल हो, बौद्धिक भटकाव की स्थितियाँ हों या कि ‘दलित विमर्श’ एवं ‘स्त्राी-विमर्श’ से जुड़े सवाल हों सबको इस दौर की कहानियाँ व्यापक संदर्भों में, बहुआयामी रूपों में प्रस्तुत करती हैं। अस्तु, संवेदना के धरातल पर अन्तिम दशक की हिन्दी कहानियाँ सीधे मनुष्य से जुड़ती हैं या मनुष्य के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। संवेदना के बहुआयामी पक्ष को नीरज शर्मा ने विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करते हुए समकालीन कहानी की नयी पहचान को भी रेखांकित किया है। और इस अर्थ में यह आलोचना-कृति समकालीन कहानी को जानने-समझने के लिए दस्तावेज के समान है। नीरज शर्मा को उनकी इस प्रथम आलोचना-कृति के लिए बधाई इस आशा के साथ कि यह तो प्रस्थान-बिन्दु है। वे और भी ऊँची से ऊँची मंजिल की ओर कदम बढ़ायेंगे और हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान कायम करेंगे।

ISBN
9789350005446
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