Apani Kahi
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"अपनी कही
सुर से शब्दों का जो नाता बनता है, शायद वही नाता झुरमुट से गिलहरी के बच्चों का और रंगों से कैनवास का। वे एक-दूसरे में अव्यक्त रूप से समाये हुए आपस में लुका-छिपी खेलते रहते हैं! युवा गायिका चिन्मयी त्रिपाठी की कविताओं से गुज़रते हुए लगातार यह महसूस होता रहा।
जैसे आलाप हममें छुपी हज़ार रुँधी पुकारों के लिए एक पत्राच्छादित, मुलायम, महीन पगडण्डी-सी गढ़ता है और स्वयं भी टूटकर पुकारता है रूठे हुए राग को-चिन्मयी त्रिपाठी के पहलौटे संग्रह की इन कविताओं में एक अस्फुट, आवेगमय पुकार छुपी है: पंक्ति से छूटे हुए, जीवन से रूठे हुए, हाशियाबन्द लोगों की प्रखर अन्तर्दीप्ति निवेदित पुकार :
'कुतुब मीनार की नींव का पत्थर है मेरी पीठ
लाल किले का लाल रंग मेरा ही तो लहू है,
जड़ा हुआ हूँ मैं खजुराहो के मन्दिर पर खड़ी
युवती के कर्णफूलों में
छिपा हुआ हूँ उसकी आँखों में चमक बनकर,
गुँथा हुआ हूँ एलोरा के शंकर की जटाएँ,
मन्दिरों में जीवन्त देव-प्रतिमाएँ बनकर!'
गलियों से गुज़रने वाले ठठेरे (ठक-ठक') 'एलजीबीटी के लोग ('खुदरंग')' माइयाँ ('किचनवाली) जैसे जीवन्त किरदार ही नहीं, शहरों के धुमैले शोर में मुरझाये पड़े-जन्तु और पेड़-पौधे ('अमलतास', 'गिलहरी के बच्चे', 'बड़े शहर के पंछी' आदि) भी चिन्मयी के आत्मीय उद्बोधन के विषय हैं!
बाहर से इतनी गम्भीर दीखने वाली चिन्मयी के भीतर छुपी नटखट बच्ची से मिलना हो, उसकी विनोद-वृत्ति और उसकी प्रखर राजनीतिक चेतना का आस्वाद लेना हो तो उसका प्रहसननुमा काव्यायोजन 'राम नाम असस्य है' पढ़नी चाहिए जहाँ अकबर और श्रीराम दोनों नाम बदल देने की याचिका लेकर एक सरकारी दफ़्तर की क्यू में खड़े हैं। खड़े-खड़े आपस में वे जो बातें करते हैं-खासी दिलचस्प हैं। पढ़े-लिखे युवक-युवतियों के मन में संस्थाबद्ध धर्म के प्रति एक विरक्ति-सी समा गयी है! आतंकविहवल इस युग में वे पर्यावरण सजग एक धर्मेतर अध्यात्म के नियोजक होकर उभरे हैं। उनके इस नये सहकारितामूलक अध्यात्म में 'मुँह में राम बगल में छुरी' की कोई संकल्पना नहीं है। कम्प्यूटरशासित इस युग में भावनात्मक सुरक्षा देने वाला प्रेमी एक 'स्क्रीन सेवर' है! 'तीस में टीनेज़' का बाँकपन लिए अपने फकीराना तेवर में स्त्री कहती है :
मुट्ठी भर वक़्त डाला एक जेब में,
मुट्ठी भर साँसें दूसरी में,
और कहा उसने कि जाओ!
गौरतलब है कि दोनों जेबों में सूराख था, फिर भी चिन्मयी की पीढ़ी नयी तरह की काल-संचेतना के साथ कोरोना-काल में भी ख़ाली सड़कों पर घूमी-खाने के पैकेट, जीव-मात्र के लिए ढेर-सा दुलार और प्राणों में प्राण लौटा लाने वाले कुछ मनहर गान लिए! स्त्री-पुरुष और प्रकृति / ब्रह्माण्ड के बीच का अनूठा सामंजस्य एक अभियान की तरह इसने चलाया । सार्वजनिक संकट में आदर्श नये सिरे से परवान चढ़ते हैं-चिन्मयी की कविताएँ इसके प्रति हमें आश्वस्त करती हैं! सन्तोष का विषय है कि नयी पीढ़ी में धीरे-धीरे यह समझ विकसित होने लगी है कि जीवन का मूल मन्त्र गिरहकट्ट स्पर्द्धा नहीं, एक हँसमुख दोस्त-दृष्टि बिखेरती सहकारिता है।
- अनामिका
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ISBN
9789355181138