Apne Aranya Ki Aor
अपने अरण्य की ओर -
लोकगीतों, लोक कथाओं और लोकतन्त्र में सैर सपाटा करने वालों, तिथि-बार के वक्ताओं-प्रवक्ताओं को वहाँ ऐसा कुछ न मिले, जिसे मैं इस उपन्यास में लिख रहा हूँ, जो उनकी दृष्टि में सिर्फ़ मेरी कायरता दिखे, जिसे मैं अभी इस भूभाग की एक बानगी भर कह रहा हूँ - मैं भी उस परिक्षेत्र को समुचित रूप में रच रहा हूँ - ऐसा नहीं है; सबकुछ लिखना अच्छा-अच्छा लिखने से कहीं अधिक कठिन है। वहाँ हिमालय है, उसकी सुन्दर वादियाँ हैं। वन-उपवन, नदियाँ, झरते झरने, झीलों सी गहरी उम्मीद से भरी दुनिया है। जिसे हर कोई हमेशा हराभरा मनोहारी देखना चाहता है, परन्तु मेरी दृष्टि पता नहीं क्यों वैसा देखने में अक्षम हो जाती है।
मुझे बहुत बार दृष्टि भ्रम भी लगता रहा है। आँखों में पानी सरसराया तो विश्वास मज़बूत होता प्रतीत हुआ— आँखों में रोशनी है, पानी मरा नहीं है। मेरी आँखें जैसा देख रही हैं, वैसी ही अँगुलियाँ चल रही हैं। फ़र्क है, अब पेन-पेपर की ठौर पर लेपटॉप और कम्प्यूटर हैं। इनके उपयोग से मन मस्तिष्क और अँगुलियों को शब्दों को लिखने में नयी गति अवश्य मिली है- दृष्टि भ्रम और दृष्टि दोष तो हो ही नहीं सकता। यही वजह है, मैंने हिमालय को हिमालय जैसा ही देखा है - उसे जस-तस देखना न दृष्टि भ्रम है न ही अनुचित।
- भूमिका से
Publication | Bharatiya Jnanpith |
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