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Aurat Jo Nadi Hai

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सघन संवेदनात्मकता और चुनौतीपूर्ण कथाविन्यास के कारण समकालीन कथा साहित्य में सहज ही ध्यान खींचने वाली युवा कथाकार जयश्री रॉय का यह उपन्यास 'औरत जो नदी है' सम्बन्धों की शिराओं के सहारे स्त्री-पुरुष मानसिकता के गहरे अन्तस्तल में उतरने का एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है।

जीवन के हर क्षेत्र में पीढ़ियों से उपेक्षा और प्रताड़ना के दंश झेलती स्त्री की आत्मचेतना से उद्दीप्त अकुलाहट और अपने ही विषवाणों से बिंधे आत्मप्रवंचना से श्लथ पुरुष की आत्म-स्वीकृतियों के परस्पर कदमताल की अनुगूँजों से भरी यह कृति एक ऐसा आईना है जिसमें हम सब अपने-अपने चेहरे की शिनाख्त कर सकते हैं। प्रेम का व्यामोह सिरज कर अन्ततः देह की चौहद्दी में दम तोड़ते पुरुष और मन के मीत की तलाश में बार-बार छली जाती स्त्री की यह समानान्तर यात्रा देह, प्रेम, परिवार और ज़िम्मेवारियों के चौखटे में न सिर्फ़ स्त्री-पुरुष के मानसिक भूगोल के बारीक अन्तरों को पुनः परिभाषित और पुनर्रेखांकित करती है बल्कि कालीन के नीचे छुपी उन दरारों को भी निर्ममता से उघाड़ जाती है जिसे हम जानबूझ कर नहीं देखना चाहते। 'औरत महज़ एक योनि नहीं होती परन्तु मर्द शायद आपादमस्तक एक लिंग ही होता है' का सूत्र मखमली कालीन के नीचे छुपी ऐसी ही सच्चाइयों का निर्मम अनावरण है।

सनसनी के विरुद्ध बेचैनी और ऐन्द्रिकता के विरुद्ध सूक्ष्मग्राह्यता की बेबाक गवाहियों से बने इस उपन्यास में तलवार की धार पर चलने जैसा तटस्थ सन्तुलन भी है और पलकों की कोर में पल रहे अथाह स्वप्नों के प्रति एक अटूट लगाव भी जो पाठकों से ठहर कर पढ़े जाने की संजीदगी की माँग करता है।

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