Baanjh Sapooti
चर्चित रचनाकार वीरेन्द्र सारंग के उपन्यास 'बाँझ सपूती' को पढ़ते हुए लगता है कि रोज़-रोज़ की असंगतियों, संघर्षों, विमर्शों का यह ज़रुरी रोजनामचा है। मानवीय सोच के व्यापक धरातल पर उपजी पीड़ा का अंकन करती हुई कथा सफल और सार्थक होने को प्रमाणित करती है। शास्त्रों, लोक-कथाओं, लोक-विश्वासों, धर्मग्रन्थों और परम्पराओं के भीतर से यात्रा करते हुए समकालीन विमर्श के भीतर से ज़िन्दगी का एक ऐसा ताना-बाना तैयार किया गया है कि पाठक पृष्ठ-दर-पृष्ठ समृद्ध होता हुआ कथा की यात्रा में समा जाता है। यह उपन्यास की विशेषता है कि यहाँ घटनाओं के नियोजन से किसी सरलीकृत निष्कर्ष तक पहुँचने का उपक्रम नहीं है, बल्कि सहजता से घटती घटनाएँ लेखक के विमर्श सूत्रों की प्रयोगशाला के रूप में वर्णित हैं। स्त्री-पुरुष में रोज़ के बिगड़ते-बनते समीकरण, शोषित जीवन की असंगतियों, गाँव के परिवर्तित मान-मूल्य और शहर के तनाव भरे उलझते जीवन के बीच एक मज़बूत प्रेम भी है। स्त्री के दैहिक सम्बन्ध बनते ही वर्जनाएँ जहाँ टूटती हैं, वहीं देह भाषा की अनूठी पहचान भी यहाँ दृष्टिगत है। जहाँ पर्यावरण की चिन्ता से उपन्यास श्रेष्ठ तो बनता ही है, वहीं कबीर के अन्दाज़ वाला दलित विमर्श भी चौंकाने वाला है, हाँ सच तो यही है कि मनुष्य स्वयं एक जाति है। विमर्शों के बीच आंचलिकता की छौंक बड़ी मज़ेदार है। उत्तेजक बहसों के साथ-साथ रसमय जीवन का प्रगाढ़ राग भी है और प्रेम में योग जैसी एकाग्रता भी, और यह सब सारंग जी के अनुभव को रेखांकित भी करते हैं। उपन्यास का यह महत्त्वपूर्ण संकेत है कि सृष्टि धीरे-धीरे क्षय हो रही है, मनुष्य ही बचा सकता है-पृथ्वी, हवा, पानी, चूल्हे की आग और दाम्पत्य रस भी। डूबकर, चिन्ता मुक्त होकर लिखी गयी यह एक अत्यन्त मूल्यवान पठनीय कृति!