Bahadur Shah Ka Mukadama

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सत्तावनी संग्राम की असफलता के बाद, दिल्ली के उसी लाल किले में, जिसके सामने से होकर हम-आप अक्सर गुज़रते हैं, ब्रिटिश हुकूमत ने अदालत का एक ढोंग रचा था और बहादुरशाह ज़फ़र को उस अदालत के सामने एक मुजरिम के बतौर पेश होना पड़ा था। इक्कीस दिनों तक चली उस अदालती कार्रवाई के अंत में, बहादुरशाह के बार-बार यह कहने के बावजूद कि मैं तो बस नाम-भर का बादशाह था, “जिसके पास न खजाना, न फौज, न तोपखाना। ...मैंने अपनी इच्छा से कोई हुक्म नहीं दिया,” जाँच कमीशन के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट कर्नल एम. डॉस और डिप्टी जज एडवोकेट जनरल मेजर एफ. जे. हेरियट ने इस मसौदे पर दस्तखत किए कि “अदालत उन गवाहियों पर एक मत है कि बादशाह उन अभियोगों के अपराधी हैं, जो कि कहे गए हैं।"

भारत के ब्रिटिशकालीन दौर और 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का विधिवत् अध्ययन करने के लिए, बहादुरशाह का मुकदमा एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। उसे अरसा पहले, 1857 की दिल्ली के वाहिद इतिहासकार मरहूम ख्वाजा हसन निज़ामी ने संपादित करके उर्दू में प्रकाशित कराया था, जिसका यह हिंदी अनुवाद अब आपके हाथों में है।

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9789352292882
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