Bahishte Zahara
बहिश्ते-जहरा -
आज के लेखक का फ़र्ज़ क्या है? क्या क़लम को राजनीति के हाथों बेच दे या फिर उसे राजनीति के प्रहार से जख़्मी इन्सानी ज़िन्दगियों की पर्दाकुशाई में समर्पित कर दे?
यह विचार 'बहिश्ते-जहरा' उपन्यास की लेखिका नासिरा शर्मा के हैं, जो न केवल ईरान की क्रान्ति की चश्मदीद गवाह रही है बल्कि क़लम द्वारा अवाम के उस जद्दोजहद में शामिल भी हुई हैं।
उनका उपन्यास 'बहिश्ते जहरा' ईरानी क्रान्ति पर लिखा विश्व का पहला ऐसा उपन्यास है जो एक तरफ़ पचास साल पुराने पहलवी साम्राज्य के उखड़ने और इस्लामिक गणतन्त्र के बनने की गाथा कहता है तो दूसरी तरफ़ मानवीय सरोकारों और आम इन्सान की आवश्यकताओं की पुरज़ोर वकालत करता नज़र आता है। ज़बान और बयान की आज़ादी के लिए संघर्षरत बुद्धिजीवियों का दर्दनाक अफ़साना सुनाना भी नहीं भूलता जो इतिहास के पन्नों पर दर्ज उनकी कुर्बानी व नाकाम तमन्नाओं का एक ख़ूनी मर्सियाह बन उभरता है। जिसका गवाह तेहरान का विस्तृत कब्रिस्तान 'बहिश्ते-जहरा' है। जहाँ ईरान की जवान पीढ़ी ज़मीन के आगोश में दफ़न है। समय का बहाव और घटनाओं का कालचक्र इस उपन्यास में अपनी सहजता के बावजूद तीव्र गति से प्रवाहित नज़र आता है जो इस बात का गवाह है कि ईरानी क्रान्ति के दौरान दो महाशक्तियों के बीच आपसी रस्साक़शी ने भी स्थिति को सुलझने से ज़्यादा उलझाया है। न पूर्व न पश्चिम की खुमैनी नीति ने आज भी ईरान को अमेरिका से पंजा लड़ाने के लिए मुसतैद रखा है - संघर्ष अभी जारी है।
...ज़बान और बयान का भी और आर्थिक जद्दोजहद का भी।
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
"यह रही अख़्तर की क़ब्र!" खड़े होते हुए कहा। सूसन ने सीधे "मुजाहिदीने ख़ल्क की कब्र वह भी यहाँ" मलीहा ने ताज्जुब से कहा। क़ब्र पर ताज़ा अधखिली लाल के फूल की एक शाख रखी हुई थी। क़ब्र भी गीली थी। लग रहा था कोई सुबह घर से आया था और क़ब्र धो कर फूल रख कर चला गया। क़ब्र पर हँसती हुई अख़्तर की रंगीन तस्वीर थी। चेक का स्कर्ट और उसी रंग के सादे कपड़े का कालर वाला ब्लाउज़ पहने थी। साँवले माथे पर बाल की एक पड़ी थी। यह स्कर्ट और ब्लाउज़ उसकी १८वीं वर्षगाँठ पर उसने पहना था। तस्वीर के नीचे लिखा था, "उम्र २३ वर्ष, शहादत १९८०।" तीनों वहीं बैठ गयीं और फ़ातेहा पढ़ने लगीं।