Barasa Anuvekkha Sarvodaya Teeka (Vol.1)
बारस अणुवेक्खा
सम्यग्ज्ञात तत्त्वों का मन में बारम्बार अभ्यास करना या चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा है। इसके बल पर ही ध्याता धर्मध्यान में स्थिर हो पाता है, उससे च्युत नहीं होता। अनुप्रेक्षा के विषय भेद की दृष्टि से बारह भेद प्रसिद्ध हैं-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म एवं बोधिदुर्लभ।
इन बारह अनुप्रेक्षाओं के विस्तृत स्वरूप को हृदयंगम कराने के लिए आज से दो हजार वर्ष पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द ने 'बारस अणुवेक्खा' नामक प्राकृत ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थरत्न संसार, शरीर और भोगों के यथार्थ स्वरूप का चित्रण उपस्थित करता है और निज स्वरूप से प्रीति कराकर वैराग्य भावना को पुष्ट करता है।
'बारस अणुवेक्खा' पर अभी तक संस्कृत या अन्य भाषा में कोई टीका उपलब्ध नहीं थी। इस कमी को अनुभव करके वर्तमान युग के गणाचार्य श्री विरागसागर महाराज ने एक विस्तृत संस्कृत टीका 'सर्वोदया' लिखी है। यह टीका वस्तुतः 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करती है। इसमें जैन परम्परा के महनीय ग्रन्थों का सार समाया हुआ है। यथाप्रसंग, प्रामाणिकता हेतु टीकाकार ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी प्रस्तुत किये हैं। ग्रन्थ के स्तरीय प्रकाशन के प्रेरक हैं— उपाध्यायश्री प्रज्ञसागर मुनिराज। सम्पूर्ण ग्रन्थ सुयोग्य सम्पादन एवं हिन्दी अनुवाद सहित करीब हजार पृष्ठों में समाहित है।
बारह अनुप्रेक्षा (भावना) जैसे महत्त्वपूर्ण विषय और आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महनीय आचार्य - इन दोनों से जुड़े होने के कारण 'बारस अणुवेक्खा' ग्रन्थरत्न सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने से तत्त्वज्ञानियों, मुमुक्षुओं और अध्येताओं के लिए आवश्यक रूप से पठनीय व मननीय है।