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सन् अठारह सौ सत्तावन के विप्लव और उसके दमन के बीच से ही अवध में वह क्रूर तालुकेदारी व्यवस्था पनपी थी जिसमें पिसती रिआया की छटपटाहट इस शती के दूसरे दशक तक आते-आते एक तूफान के रूप में फूट पड़ी, जिसने एक बार तो सत्ता की तमाम चूलें हिला दीं। कमला कान्त त्रिपाठी का दूसरा उपन्यास 'बेदखल' उसी तूफान के घिरने, घुमड़ने और फिर एक कसक-सी छोड़ते हुए बिखर जाने की कथा है और इस दृष्टि से अठारह सौ सत्तावन की पृष्ठभूमि में लिखे उनके पहले उपन्यास 'पाहीघर' की अगली कड़ी भी। अवध का किसान आन्दोलन ऊपर से राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा का अंग भले लगे लेकिन दोनों की तासीर में बुनियादी फर्क था। जहाँ मुख्य धारा सत्ता में महज़ ऊपरी परिवर्तन और उसमें भागीदारी के लिए उन्मुख होने से देशी तालुकेदारी के कुचक्रों के प्रति आँखें मुँदे रही, वहाँ किसान आन्दोलन ने भू-व्यवस्था और उससे जुड़ी उस विषम सामाजिक संरचना को चुनौती दी जिसके केन्द्र में यही तालुकेदार मौजूद थे। इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। शायद इस अन्तर्विरोध को रेखांकित करने के लिए ही लेखक ने इतिहास की इस विडम्बना को अपने उपन्यास का विषय बनाया है। कमला कान्त त्रिपाठी अपने पात्रों को कुछ इस तरह छूते हैं कि उनके और पाठकों के बीच न काल का व्यवधान रह जाता है, न लोगों को अतिमानव बनाने वाली इतिहास की प्रवृत्ति का। यह जन-शक्ति के उस स्वतःस्फूर्त उभार की कथा है जो बाबा रामचन्द्र जैसे जन-नायक पैदा करती है, जिन्होंने रामचरितमानस की चौपाइयों को आग फूंकने के औजार की तरह इस्तेमाल किया और जिनकी 'सीताराम' की टेर पर हिन्दूमुसलमान दोनों अपने धार्मिक भेद भुलाकर दौड़ते चले आये। उपन्यास में 'साधू' और 'सुचित' जैसे कुछ सामान्य चरित्र भी हैं जिनकी आम भारतीय तटस्थता और दार्शनिकता के बरअक्स ही अवध के किसान आन्दोलन को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य मंत देखा जा सकता है।

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