Bitiya Na Maane
सहज भाषा में गूढ़ बातें कह लेने का हुनर साध लेना आसान नहीं, न ही आसान है इस झंझावाती समय में ख़ामोशी से घुसे चले आ रहे बदलावों को कुशलता से विश्लेषित कर पाना। स्त्री-विमर्श का झण्डा नहीं उठाने के बावजूद नीला प्रसाद की कहानियों में स्त्री-जीवन के मुद्दे उसी सहजता से चले आते रहे हैं जिस सहजता से व्यवस्था विद्रूप, भ्रष्टाचार, कार्यस्थल की अन्दरूनी राजनीति के मुद्दे। उनकी कहानियों की स्त्री देह से परे अपनी पहचान खोजती, बराबरी से जीने की चाहना से भरी, अपने बहुपरती जीवन को अपने नज़रिये से परखती-बरतती, आत्म-अन्वेषण करती दिखती है और इस प्रक्रिया में कई बार हमें चौंकाती हुई, मुद्दों को देखने का अलग नज़रिया पेश कर डालती है।
इस संग्रह की कहानियों में धार्मिक उन्माद और सत्ता की निरंकुशता के बीच बेचैन आम आदमी की हताशा और परेशानियाँ दर्ज हैं तो भूमण्डलीकरण की घुसपैठ के बाद पूरी दुनिया के एक बड़े समाज के साझा बाज़ार बन जाने के दौर में झोली में आ गिरे नये अवसरों का स्वाद लेती, अलग क़िस्म की असुरक्षाओं से जूझती युवा लड़की के तनाव भी, जिसे इस बदली हुई दुनिया में सपनों की ऊँची उड़ान के मध्य, विवाह एक अवांछित दायित्व और फ़िज़ूल की ज़हमत मालूम हो रही है। साथ ही उपस्थित डिजिटलाइजेशन के चमकीले परदे के पार के अँधेरे, सरकारी नियमों के छेद, लचीली नैतिकताएँ, आजीविका के संघर्ष से जूझते मज़दूर, उलझे समीकरणों के बीच आपसी रिश्तों में आ रहे नकारात्मक बदलावों की चुनौतियाँ। कई बार कहानी का मुख्य पात्र अन्त आते-आते अपने नैतिक चरित्र का विलोम प्रस्तुत करता हुआ नैतिकता-अनैतिकता के बीच की उस महीन लचीली रेख के प्रति हमें सचेत कर देता है जिसके आर-पार की मजबूरन आवाजाही के बीच हम सफ़ेद-स्याह चरित्र का घालमेल बनकर जीने को अभिशप्त हो जाते हैं।
अपनी रचनाओं में शिल्प के उलझावों को मुद्दों पर हावी नहीं होने देने की सजगता और पात्रों के अनुरूप बदलती जाती भाषा के प्रयोग ने इस संग्रह में बिहारी बोली, खड़ी हिन्दी और नयी पीढ़ी की हिंग्लिश को स्वाभाविक प्रवेश देकर रोचकता बनाये रखी है। इस संग्रह की कहानियों में बदलते समय की तहों में सहजता से घुसपैठ कर जाता, भाषा-शिल्प-कथ्य का वही अनूठा संयोजन, यथार्थवादी होने के अपने तमाम आग्रहों समेत शिद्दत से मौजूद है, जिसके लिए नीला प्रसाद जानी जाती हैं।