Chait Ke Badal
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"सन् 1928-29 के आसपास निराला जी जिस मुक्तछन्द की प्रस्तावना लेकर आये उसका आशय यही था कि कविता का मुक्ति-संघर्ष किसी भी अर्थ में जातीय मुक्ति-संघर्ष से अलग नहीं। यह मुक्तछन्दता जब वैचारिकता के दबाव में फ़ैशन बनने लगी तब केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, धूमिल जैसे सहज कवियों में ही सार्थकता का यह काव्य-सौन्दर्य वापस आ सका। समकालीन साहित्य की भीड़ में भीड़ के भीतर के नंगे यथार्थ को, असाधारण साहस और सामूहिक जातीय अवचेतन की काव्य-परम्परा को एक बार फिर अष्टभुजा शुक्ल जैसे कवि-व्यक्तित्व की निजता ने अपनी सर्जना से प्रमाणित किया है।
अष्टभुजा शुक्ल की काव्य-व्यंजकता और सम्प्रेषणशीलता में लोक और शास्त्र एक दूसरे से सटकर कुछ वैसे ही खड़े हैं जैसे कुमार गन्धर्व के कबीर गायन या फिर पुनर्नवा (हजारी प्रसाद द्विवेदी) की कथा-दृष्टि में। अष्टभुजा की कवि-यात्रा में लोक का जो वंचना - बोध है, वह इस अतिराजनीतिक समय के विरुद्ध एक सांस्कृतिक वक्तव्य की तरह है। पश्चिम से आये विचारों और काव्यान्दोलनों के कुप्रभाव से कवि और कविता का जो रहन-सहन बेपटरी हो गया था। उस स्वदेशीयता को अष्टभुजा के कवि ने इतने साहसिक ढंग से सँजोये रखा कि उसे आलोचक के शरणागत होने की ज़रूरत नहीं रही।
सन् 1930 में भवानीप्रसाद मिश्र ने 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख' की चुनौती कविता के सामने रखी थी तो महान शायर मीर ने- 'शेर मेरे हैं गो ख़वास-पसंद/पर मुझे गुफ़्तगू अवाम से है' के जरिए कविता के अभिप्रेत को व्यक्त किया था। अष्टभुजा की काव्य-अभिव्यक्तियों में जनपदीयता की वही गंध, छन्द और व्यंजना मौजूद है।
इस कवि की काव्य-यात्रा का निरन्तर साक्षी, कहिए निजी जीवन में गहरी अन्तरंगता के चलते भी ठेठ देशी भूमि की ठाठदार निगाह 'वाले' भाषा कवि अष्टभुजा शुक्ल अगर अब भी चाह लें तो हमारी समकालीन काव्य-पीढ़ी का एक माडल कवि बन सकने की सामर्थ्य प्रदर्शित कर सकते हैं। यह उम्मीद मुझे इसलिए भी है कि भाषा की अयाल को अपनी मुट्ठियों में कसे अष्टभुजा के पास पाण्डित्य सरसता भी है। आम हिन्दी पाठकों को 'रिझाने' की कला से भरे हुए, साथ ही ख़ास पाठकों और आलोचकों को भी आश्वस्त करते हुए अष्टभुजा जो कुछ रफ-टफ और मोहक कर रहे हैं, उसके पीछे हज़ारों साल से चली आ रही काव्य-परम्परा का लोकवादी भावबोध और काव्य-भाषा की चमत्कारी पुनर्नवता भी है। शुभकामनाओं सहित।
- विजय बहादुर सिंह,
29, जून 2010, कोलकाता
प्रात: 05 से 8:39 तक
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ISBN
9789369443680