Dalit Darshan Ki Vaichariki
काल्पनिक मिथकों को इतिहास से जोड़ना या फिर इतिहास का भ्रामक लेखन भी मनमानी परम्पराओं के निर्माण की ही एक कड़ी है। यही कारण है कि पढ़ा-लिखा होने के बावजूद एक तबका सोची-समझी रणनीति के तहत पुरातात्विक साक्ष्यों को दरकिनार करके मिथकीय कथाओं को सच बनाने में जुटा रहता है। चाहे मन्दिर-मस्जिद के झगड़े हों, मन्नार खाड़ी के समुद्री जहाज़-मार्ग के चौड़ीकरण का मामला हो या सिन्धु- सभ्यता के बरअक्स सरस्वती-सभ्यता का मनगढ़न्त नामकरण, लगातार ऐसे दुराग्रह पेश किये जाते रहे हैं। आज भी कोई साधु-संन्यासी, भू-गर्भीय भविष्यवाणी करता है तो सोने के भण्डार के लिए खुदाई करते हुए लाखों रुपये इस अफ़वाह की भेंट चढ़ जाते हैं। ऐसा इसी देश में सम्भव है। इस प्रकार की अवैज्ञानिक मान्यताएँ बार-बार वैज्ञानिक प्रतिबद्धताओं पर कुठाराघात करती हैं। पुष्पक विमानों की यात्राएँ और अग्नि-वाणों से समुद्र सुखाने जैसी गल्पें जन-मानस में विश्वसनीयता की हद तक स्थापित कर दी जाती हैं। नयी फ़सलों की उपज के अभिनन्दन में नयी ऋतुओं के साथ नृत्य-गान की परिपाटी आज भी ग्रामीण, आंचलिक और जनजातीय समाज में किसी न किसी रूप में (लगभग हर राज्य में) जीवित है। गुजरात से असम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक ऐसी पारम्परिक मान्यताओं वाले तीज-त्योहार मुख्तलिफ नामों से आसानी से पहचाने जा सकते हैं। इनमें प्रह्लाद और होलिका-दहन के मिथक, धम्म-विजय को रावण-वध की विजयादशमी के रूप में तथा दीप-उत्सव को कल्पित कथानकों के निर्मित चरित्रों से जोड़ने का काम इसी तरह की अफ़वाहों से स्थापित/विस्थापित करने का प्रयास होता है। एक लम्बी समयावधि में इसे अधिकांश लोगों की मान्यता तक प्राप्त हो चुकी होती है। उसके इतर कोई भी तार्किक बात लोगों को आसानी से नहीं पचती है।