Dhadhak Dhuan Dhuan
धधक धुआँ धुआँ -
सूर्यनाथ सिंह बदलते समय के गतिशास्त्र को चिह्नित करनेवाले कहानीकार हैं। वे हमें ऐसा प्रेक्षण-बिन्दु मुहैया कराते हैं जहाँ से घटनाओं, स्थितियों, चरित्रों और सूचनाओं को व्यापक परिदृश्य के बीच रख कर देखा-समझा जा सकता है। यहाँ से देखने पर चीज़ें अलग-थलग इकाइयों के रूप में नहीं रहतीं, वे सन्दर्भयुक्त होकर इतिहास के पाले में एक सुसंगत अर्थ का निर्माण करती हैं। इस प्रक्रिया में अक्सर उनकी कहानियाँ औपन्यासिक आयाम ग्रहण करने लगती हैं तो क्या आश्चर्य!
समकालीन इतिहास को अपनी कहानियों में पकड़ने-समेटने की कोशिश में गाँव इस कहानीकार को बार-बार आकर्षित करता है- एक ऐसा आकर्षण जो आज के कहानीकारों के एक बड़े दायरे में लगभग अनुपस्थित है। सूर्यनाथ सिंह की कहानियाँ राज्यतन्त्र और साहित्यिक मुख्यधारा द्वारा समान रूप से उपेक्षित इस गाँव के कोण से समय के बदलाव को देखना सम्भव करती हैं। संग्रह की ज़्यादातर कहानियाँ उन लोगों से वाबस्ता हैं, जिन्होंने 'उगाया बासमती, खाया कुअरहा।' ऐसे लोगों की ज़िन्दगियों में राज्य, पूँजी, नवउदारवाद और वैश्वीकरण की पैठ क्या-कुछ बदल रही है, इसे रेखांकित करते हुए सूर्यनाथ हिन्दी को ठेठ आज के गाँव की कहानियाँ दे पाते हैं, जिसकी सूरत और सीरत रेणु के गाँव से ही नहीं, शिवमूर्ति और महेश कटारे आदि के गाँव से भी जुदा है।
...और सबसे बड़ी बात यह कि बदलाव को यों सजग रूप में दर्ज करते हुए भी सूर्यनाथ अपनी कहानियों के कहानीपन पर समझौता नहीं करते और उन्हें नीरस दस्तावेज़ बनने से बचा ले जाते हैं। -संजीव कुमार