Dharmakshetra Kurukshetra
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे -
दूधनाथ सिंह का यह पाँचवाँ कहानी-संग्रह है। इस संग्रह की सारी कहानियाँ पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक में लिखी गयीं, सिवा एक कहानी 'दुर्गन्ध' को छोड़कर, जो श्री भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'समारंभ' के प्रवेशांक में सन् १९७२ में छपी थी।
कहते हैं कि एक बड़ा कवि एक ही कविता बार-बार जीवन-भर लिखता है लेकिन एक बड़ा कथाकार हर बार एक अनहोनी और अलग कहानी लिखता है। दूधनाथ सिंह ने कभी अपने को दुहराया नहीं। इसीलिए उनका संवेदनात्मक अन्वेषण और नवोन्मेष हर बार पाठकों को हैरत में डालता है और अक्सर उन्हें अस्त व्यस्त कर देता है। लेकिन अपनी हैरानी और अस्त व्यस्तता के बावजूद पाठक को हर बार एक ही अनुभूति होती है—
देखना तकरीर की लज्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।
प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में लोक-रंग का एक अद्भुत प्रवेश हुआ है। कहानी की अन्तर्वस्तु, स्थितियों और प्रभावों को एक वृहत्तर पाठक-वर्ग तक ले जाने की क्षमता से युक्त भाषा अपनी विविध-वर्णी संरचना, सहजता, अनायासता और निपट सरलता को यहाँ उपलब्ध करती है। बात को बखानने का एक नया ढंग, जो कहानीकार और पाठक को एकमेक करता है– इसी रूप में यह कथाकार कहानी की दुनिया में व्याप्त फ़न और फ़ैशन से अलग, कहानी को किसी भी संक्रामक 'रीति', 'नीति' से मुक्त करता हुआ भारतीय जनता के यथार्थ को उद्घाटित करने का एक दुस्साहसिक प्रयत्न करता है। 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' इसी जनोन्मुख यथार्थ का एक दस्तावेज़ है।