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Bharatiya Jnanpith
Dhoop Aur Daria
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"धूप और दरिया -
धरती ने रूप पाया: तभी से धूप है तभी से दरिया। मानव में बोध जागे: तभी से प्यार की प्यास फूटी, तभी से जिसको मिलना हुआ उसे भर-भर घूँट मिला और जिसके लिए बदा न था उसे ओस की बूँदें तक मुहाल रहीं। शायद यही बात है कि जहाँ दरिया है वहाँ धूप ज़रूर है, पर यह ज़रूरी नहीं कि जहाँ धूप है वहाँ दरिया भी हो।
‘धूप और दरिया' में इन्हीं कुछ अनबूझ सचाइयों की एक ऐसी कहानी साकार हो आयी है जिसका क्षण-क्षण जीया गया है और जिसके तार-तार में किसी की अनुभूतियाँ बसी हुई हैं। यों लिखने को अनगिनत उपन्यास लिखे जाते हैं, पर सच्चा उपन्यास तभी लिखा जा पाता है जब कोई सर्द आग-सी अनदिख सचाई लेखक की चेतना को आ घेरे और उसे फिर कहीं चैन न हो। 'धूप और दरिया' ऐसी ही एक रचना है: छोटी, पर उस नग़्मे की लय-जैसी जो देर बाद तक भी हवा में काँपती रह जाये।
हिन्दी के एक मर्मी आधुनिक कवि-उपन्यासकार-सम्पादक इसे देखकर कह उठे थे, ""पंजाबी साहित्य में जगजीत बराड़ का सृजन सही अर्थों में आधुनिक लगता है।"" आधुनिक यह है, पर उससे कुछ अधिक भी है। भारतीय ज्ञानपीठ की 'पुनर्नवा श्रृंखला' में एक और प्रस्तुति ।
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