Dooba Sa Andooba Tara

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"डूबा-सा अनडूबा तारा - हिन्दी के लोकतन्त्र में कवि कैलाश वाजपेयी की रचनात्मक नागरिकता मौलिक एवं मूल्य सम्पन्न है। देश और काल के तुमुल कोलाहल में कैलाश वाजपेयी का अकुतोभय स्वर कविता के महाराग को समृद्ध करता है। इस समृद्धि के हीरक हस्ताक्षर 'डूबा-सा अनडूबा तारा' काव्य के प्रत्येक पृष्ठ पर आलोकित हैं। यह 'काव्यात्मक आख्यान' अथक मिथक-पुरुष अश्वत्थामा के साक्षी-भाव का संस्तवन है। निरपेक्ष द्रष्टा अश्वत्थामा जातीय स्मृतियों से सम्बद्ध अश्वत्थ वृक्षों की समयातीत छाया में आश्रय लेकर अस्तित्व की अन्तर्ध्वनियाँ सुनता है। एक गूढ़ अर्थ में यह काव्य अश्वत्थामा और अश्वत्थ वृक्षों का सांस्कृतिक संवाद भी है। लगता है यह आख्यान किसी अनाख्य ऊर्जा के निपात से सहसा जनमे वात्याचक्र की फलश्रुति है। जैसे बाँसों के जंगल में बहती बयार, जैसे शिशिर की प्रत्यूष वेला में चीड़ों पर चुपचुप गिरती ओस की बूँदें, जैसे सरपत के झाड़ों से खिलवाड़ करती ऊर्मियाँ, जैसे अलसाई पड़ी काया को चुपके से आकर छू ले कोई और अनगिन कम्पन रोम-रोम में, जैसे धुनी जाती रूई से उड़े लाख-लाख रेशे— ऐसा कुछ है अवचेतन; जहाँ पता नहीं कब से, सोयी पड़ी हैं कौन-सी छायाएँ... या फिर अदृश्य बहती माँ सरस्वती। इस अवचेतन ने 'डूबा-सा अनडूबा तारा' में अक्षर आकार प्राप्त किया है। इस प्रबन्ध रचना को पढ़कर ऐसा कुछ प्रतीत होगा कि निश्चित रूप से जिस साक्षी-भाव से पूरे के पूरे काल-प्रवाह को अश्वत्थामा ने देखा, उसी की अवध्वनि से उद्वेलित होकर यह कृति अभिव्यक्ति के द्वार तक आयी। कैलाश वाजपेयी लिखते हैं, ""जो हवा पी रहे तुम/ जिस धरती पर सस्पन्द हो/ उसका सब ब्यौरा अंकित है दिक् क्षेत्र में/ काल शाश्वत का अभिलेखागार है।"" काल के भी कई रूप हैं। एक काल वह जो मिथकों में है, दूसरा वह जो इतिहासबद्ध है, तीसरा वह जो मनश्चेतना से होकर प्रवाहित है। प्रतीत होता है कि इसी सर्जनात्मक अन्तरंग मनःस्थिति में 'डूबा-सा अनडूबा तारा' की रचना हुई है। यह प्रबन्ध रचना कृष्ण, बुद्ध, शंकर और कबीर के साथ धृतराष्ट्र, विदुर, सुजाता, भारती और नीमा आदि चरित्रों के दृष्टिकोण से की गयी 'सभ्यता-समीक्षा' का भी एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विकास की विभिन्न अवधारणाओं का अनुगमन करती 'मानुष नियति' वर्तमान में गतिशील है। कैलाश वाजपेयी इस विकास और नियति का विदग्ध विश्लेषण करते हुए कवि-कर्म को एक अनूठी सार्थकता प्रदान करते हैं। मनुष्य और प्रकृति के अनन्य साहचर्य का इस रचना में कवि ने समकालीन भाष्य प्रस्तुत किया है— 'वृक्ष ज़िन्दगी के पहरुवे हैं।' अश्वत्थामा की मिथकीयता में मानवीयता का सम्मिश्रण इस कृति का महत्त्व बढ़ा देता है। इसकी भाषिक उपलब्धियाँ अभिशंसनीय हैं। अनेक कारणों से प्राय: इकरंगी होती जा रही काव्य-भाषा के बीच कैलाश वाजपेयी की भाषा अर्थापन, अर्थविस्तार एवं अर्थसौन्दर्य का उदाहरण है। 'डूबा-सा अनडूबा तारा' विरूप होती जा रही जीवनचर्या में एक प्रार्थनापरक मंगलाशा है 'कोई/ अनाम पराचेतना आये/ झकझोर कर हमें जगा दे गहरी नींद से, यह मंगलाशा छन्दों की भावानुकूलता से अलंकृत है। कविता के मर्मान्वेषी पाठकों के लिए सँभाल कर रखने योग्य एक आलोकवान काव्य-कृति। —सुशील सिद्धार्थ "
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9788126318575
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