Gatha Bhoganpuri
गाथा भोगनपुरी -
'गाथा भोगनपुरी' को उपन्यास कहा जाये, लम्बी कहानी, रिपोर्ताज़ या एक विस्तृत रपट यह समस्या इसके समीक्षकों के सामने ज़रूर खड़ी होगी। कहने को तो यह लेखक का पहला उपन्यास है लेकिन इसकी सामाजिक और राजनीतिक अन्तर्दृष्टियाँ उसके निजी और गहरे व्यक्तिगत अनुभवों की गवाही देती हैं। यह एक ऐसे युवा प्रशासनिक अधिकारी की कथा है जो अपने आसपास मज़दूरों और आदिवासियों को अन्याय से पिसते, शोषित होते देखता है ओर उनका पक्ष लेने की जोख़िम-भरी भूल कर बैठता है। उपन्यास जिस चरमोत्कर्ष पर आकर समाप्त होता है उसमें हताशा या कुण्ठा नहीं है बल्कि हमारे समय की सच्चाई का त्रासद अहसास है। इस कृति की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि यह भावुकता, दया या करुणा की बैसाखियों का सहारा नहीं लेती। यह वास्तविकता का बयान बड़ी ठेठ भाषा में करती है। इसे एक अफ़सर के प्रतिवेदन के रूप में भी पढ़ा जा मकता है। 'गाथा भोगनपुरी' हिन्दी उपन्यास में एक छोटी लेकिन नयी शुरूआत है। पहली बार हमारे समाज और हमारी राजनीति को 'अन्दरूनी' निगाह से देखा गया है।