Goonj Dabte Swaron Ki
गूँज दबते स्वरों की -
कहानियों के इस शंख में आदमी, समाज और देश के यो अन्तस नाद हैं, जो हमसे टकराते भी हैं, और हमारी आत्मा को जगाते भी हैं। www के इस जमाने में काग़ज़ी सम्बन्धों का चलन बढ़ता-सा लग रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी तरक़्क़ी तो है, मगर क्या हमारी ख़ुशियाँ भी समानुपातिक बढ़ रही हैं? चाहे ज़माने की अन्धाधुन्ध दौड़ में पीछे छूटते अपने लोग हों, अहसानों के बोझ को अप्रत्यक्ष रूप से मढ़ने-मढ़वाने का स्वभाव हो, 'गूंज' ऐसे पहलुओं से सरोकार करवाती है। बचपन कोरा काग़ज़ होता है, और समाज अपना मनचाहा रंग चढ़ा देता है। उम्र की दलान पर अकसर कुछ मलाल जाता है। देश, देश-प्रेम, एकता, और सिपाही के बलिदान की बातें, 'गूंज' इन्हीं सब विषयों के इर्द-गिर्द बजती है। साँसों का पहिया अनवरत घूम रहा है। 'गूंज' उस पहिये का विराम है, तय की गयी यात्रा का मन्थन है। साथ ही आगे की यात्रा एक अच्छा इतिहास बने, इसका चिन्तन है।
जहाँ 'गूंज' की कहानियों को शब्द दिया है नवीन सिंह ने वहीं कथा अनुरूप चित्रों से बड़ी ख़ूबसूरती से सजाया है—गीता सिंह ने।