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Vani Prakashan
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"‘हल्ला’ शरणकुमार लिम्बाले की विद्रोही दलित कविताओं का नया संग्रह है। समकालीन सामाजिक और राजनीतिक विस्फोटक परिस्थिति के सारे स्पन्दन इन कविताओं में बेधड़क व्यक्त होते नज़र आयेंगे। सामाजिक मानस की आग इन कविताओं की हर पंक्ति में धमाके और उद्रेक के रूप में प्रखरता से प्रकट हुई है। यह मनुष्य की मुक्ति का सुन्दर स्वप्न देखने वाली और सुजलाम्-सुफलाम् राष्ट्र की रचना करने वाली दिल को छूती अभिव्यक्ति है। मानव जीवन के प्रति अपार आस्था रखने वाली ये कविताएँ पढ़ते समय सामाजिक परिवर्तन की तेज़ ज़रूरत महसूस होती हैं। यही इन कविताओं की सफलता है।
★★★
‘हल्ला’ कविता-संग्रह की कविताएँ समाज के 'शोषित' और ‘शोषक' इन दो वर्गों के बीच अन्तर करती हैं। ये कविताएँ ‘शोषक’ और ‘दमनकारी व्यवस्था' को लक्ष्य करके लिखी गयी हैं। ये कविताएँ जाति व्यवस्था को ध्यान में रखकर लिखी गयी हैं। ये कविताएँ शोषितों, वंचितों और दलितों की प्रतिनिधि हैं। जाति व्यवस्था ने निचले वर्ग के लोगों को बोलने का मौक़ा नहीं दिया था। उच्च वर्ग के लोगों ने बरसों बरस तक निचले वर्ग के लोगों पर बहुत कुछ बोला है। निचले वर्ग के लोग मूक थे। उन्हें उच्च वर्ग के लोगों के बारे में बात करने की मनाही थी। बोलने पर कड़ी सज़ा दी जाती थी। सदियों से जो आवाज़ दबी हुई थी, वह इन कविताओं के माध्यम से व्यक्त हुई है। इसलिए इन कविताओं में केवल दलित ही बोलते हुए नज़र आते हैं। ऐसा लगता है कि यहाँ ग़ैर-दलितों को केवल श्रोता की भूमिका दी गयी है।
– इसी पुस्तक से
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