Harit Bhasha Vaigyanik Vimarsh

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हरित भाषावैज्ञानिक विमर्श - 
साहित्य की दुनिया अब विमर्शो की है। विचारधारा की केन्द्रीयता नष्ट हो गयी। साहित्य में लोकतान्त्रिकता आ गयी। इस लोकतन्त्रीय स्वरूप के अनुकूल भाषा भी बदलने लगी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से जो विकास एवं परिवर्तन प्रकट हो रहे हैं, वह उद्योग की गतिविधियों पर भी गहरा प्रभाव डाल रहे हैं। नयी विकास योजनाएँ जन्म ले रही हैं। कभी-कभी इन योजनाओं की अदूरदर्शिता के कारण इनका विपरीत असर समाज और जनता पर पड़ता। यह दुनिया के पेड़-पौधों एवं जन्तु समूहों के वंशनाश एवं प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की वजह बनता है। लेकिन ऐसे परिवेश में भी अधिकारी वर्ग एवं तथाकथित जनसेवक अपने को पर्यावरण-मित्र स्थापित करने के लिए प्रकृति की भाषा का इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। यह जीवन के समस्त क्षेत्र में आज फ़ैशन-सा बन गया है। इसमें निहित जो औद्योगिक एवं बाज़ारू षड्यन्त्र है, उसे समझना आज की अनिवार्यता है। यह हरित भाषावैज्ञानिक विमर्श के द्वारा सम्भव हो जायेगा।

अन्तिम पृष्ठ आवरण - 
हेगन (Haugen) ने 1970 में 'भाषा पर्यावरण' (Language Ecology) शब्द का प्रयोग किया। इसका अर्थ है किसी प्रदत्त भाषा और पर्यावरण के बीच के आशयविनिमय का अध्ययन। हेगन के अनुसार भाषा को इसके सामाजिक सन्दर्भ में समझा जा सकता है। यह एक बच्चे द्वारा अर्जित पहली भाषा के सन्दर्भ में अनिवार्य है। भाषा के कुछ विशेष रूप का प्रयोग विशेष सन्दर्भ में उचित नजर आता है। हेगन की परिभाषा में वे पर्यावरणीय विनिमय पहचानते हैं और भाषा एवं पर्यावरण के अतिरिक्त सम्बन्धों के अध्ययन को मुख्य स्थान देते हैं। यह संरचनावाद और उत्पादनवाद द्वारा उपेक्षित पहलू है। हेगन ने यह बात उठायी कि भाषावैज्ञानिक व्यवहार उसके सामाजिक सन्दर्भ में समझा जा सकता है। यह विचार सामाजिक भाषाविज्ञान और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में काम करने वालों की जाँच के आधार पर हुआ। कई अवसरों पर भाषा के सामाजिक घटकों जैसे उम्र, लिंग, सामाजिक वर्ग और साक्षरता आदि के सम्पर्क से यह पहचान हुई।

ISBN
9789350729830
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