Hindi Ki Vartni Tatha Shabd Vishleshen
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हिन्दी बहुत सरल, शुद्ध तथा पूर्ण वैज्ञानिक भाषा है और इसीलिए बिना पढ़े ही लोग बोलने-समझने लगते हैं । अब से छह-सात सौ वर्ष पहले ही मुसलमान बादशाहों ने इसे दिल्ली से कलकत्ता-ढाका तक और इधर गुजरात, महाराष्ट्र तथा दक्षिण भारत तक फैला दिया था। हाँ, लिखने में वे अपनी अभ्यस्त (फ़ारसी) लिपि का प्रयोग करते थे और अभ्यस्त (फ़ारसी - अरबी आदि के) शब्द भी बरतते थे; सो भी संज्ञाएँ भर, कुछ विशेषण भी, बस । उसी (सरकारी) हिन्दी का नाम बाद में 'उर्दू' पड़ गया । उस समय की ‘उर्दू’ हिन्दी ही थी। सरलता से सर्वत्र चल पड़ी। परन्तु ‘नीम हकीम' जैसे नीरोग को भी रोगी बना देते हैं, उसी तरह अधकचरे 'विद्वान' भाषा को विकृत कर देते हैं । 'कवि' की जगह 'शायर' तो सरकारी प्रभाव से लोगों ने समझ लिया और 'शायर' का 'अदब' भी करने लगे; परन्तु “ शोअरा का अदब समझने की चीज़ नहीं”, इस तरह के उर्दू-वाक्य गड़बड़ी पैदा करने लगे यदि कहा जाता - “ शायरों की शायरी सबके समझने की चीज़ नहीं”, तब तो ठीक भी होता । 'शायरों की शायरी, यानी ‘कवियों की कविता' । 'शायर' का बहुवचन 'ओं' विकरण लगाकर स्पष्ट है, जैसे कि 'विद्वानों' का । परन्तु 'शोअरा' बहुवचन जाने किस भाषा के 'कायदे' से चलाकर भेद पैदा कर दिया गया ! यहीं हिन्दी से उर्दू अलग हुई और आगे चलकर यह भेद फिर हिन्द में भी पैदा हो गया। ‘उर्दू’ पर आधारित पृथक् राज की माँग हुई और हिन्द के दो रूप हो गये-हिन्द और पाकिस्तान; जैसे एक भाषा के दो भेद हुए थे-हिन्दी और उर्दू ।
ISBN
9788170555377