JanKavi
जनकवि -
अभी हमारे निकट अतीत के युग में हिन्दी गद्य में जो काम प्रेमचन्द ने किया वही काम कविता के क्षेत्र में नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध ने किया। प्रगतिशील काव्य-आन्दोलन जब भी पहचाना जायेगा और उसको अपना श्रेय मिलेगा, उसका आधार उसके सैद्धान्तिक और वैचारिक पक्ष कम, उस जीवन दर्शन की उत्कृष्ट सृजनात्मक परिणतियाँ बनेंगी जो रचनाओं के रूप में प्रकट हुई। विजय बहादुर सिंह के इस संकलन का सबसे पहला महत्त्व यही है कि इस पुस्तक के माध्यम से वे एक पूरे युग, एक सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि, एक समग्र विचारधारा और एक परस्पर-सम्पूरक सृजनशीलता को एक साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। नागार्जुन की कविता की सचेत फक्कड़ता का कबीर वाला बाना, त्रिलोचन की अन्तरंग और कला-साध्य सहजता, केदार की रचनाओं का लोक-सौन्दर्य और किसान-संवेदना, शमशेर की अप्रतिम और ख़ास 'शमशेरियत' तथा मुक्तिबोध की संवेदना और विवेक का गहन तनावग्रस्त अँधेरा और आत्मद्वन्द्व यहाँ एक साथ संयोजित हैं।
"हम लेखक हैं,
कथाकार हैं,
हम जीवन के भाष्यकार हैं, चंद, सूर, तुलसी, कबीर के
सन्तों के, हरिचन्द वीर के
हम वंशज बड़भागी।
हम हैं मानवतावादी
हम कवि हैं जनवादी।
अपने युग के विराट और व्यापक जन-जीवन की सृजनात्मक व्याख्याएँ करती 'कर्मवाची' शब्दों से लिखी गयी इस कविता के अनेक रंग इस संग्रह में पाठकों को मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं।
-उदय प्रकाश
पिछले बरसों में हमारी धारा को तलाशने वाले जितने भी संकलन हुए हैं तक़रीबन तार सप्तक के बाद उसमें जन-कवि निश्चित ही एक बहुत महत्त्वपूर्ण और उत्तेजक संग्रह है।
-राजेश जोशी