Jharta Neem Shashwat Theem

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झरता नीम : शाश्वत थीम - 
लोग जितना समझते हैं, शरद जोशी का साहित्य उससे कहीं ज़्यादा विशाल है। अपने जीवन काल में वे लिखने में जितना व्यस्त रहे, उतना ही अपनी कृतियों को पुस्तक रूप में छपाने में उदासीन रहे। वैसे, उनके जीवन काल में उनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं। शरद जोशी का लेखन ऊपर से देखने पर निहायत सीधा सादा और साधारण लगता है पर दुबारा पढ़ते ही अपनी असाधारणता से पाठक को अभिभूत कर देता है। इसके मुख्यतः दो कारण हैं। एक तो यह कि ज़िन्दगी की साधारण स्थिति पर हल्के-फुल्के ढंग से लिखते हुए वे अचानक किसी अप्रत्याशित कोण से हमारी चेतना पर हमला करते हैं। रचनात्मक क्षमता के विस्फोट- आकस्मिक और अप्रत्याशित - शरद जोशी के लेखन में कहीं भी मिल सकते हैं।

उनकी दूसरी ख़ूबी उनके अत्यन्त मनोहर मानवीय स्वभाव में है जो उनकी रचनाओं में सर्वत्र प्रतिफलित है। हास्य और व्यंग का शास्त्रीय विश्लेषण करनेवाले व्यंग को सामाजिक जीवन की तीख़ी आलोचना से जोड़ते हैं। जहाँ विरूपता, विडम्बना, अतिश्योक्ति, फूहड़पन और जुगुप्सा आदि कुछ भी वर्जित नहीं है। शरद जोशी व्यंग और हास्य के इस चिरन्तन और शास्त्रीय अन्तर को अपने सहज सौम्य स्वभाव से मिटाते नज़र आते हैं। वे समाज के विविध पक्षों की तीख़ी आलोचना करते हुए भी और अपने तीख़ेपन को छिपाये बिना भी कटुता और अमर्यादित भर्त्सना से उसे दूर रखते हैं।
शरद जोशी के लेखन में पाठक देखेंगे कि उनमें अधिकांशतः वाचिक परम्परा की रचनाएँ हैं। ऐसा लग रहा है कि लेखक लिख नहीं रहा है, वह एक अन्तरंग समुदाय से बात कर रहा है और यह तब की बात है जब शरद जोशी सार्वजनिक रूप से श्रोताओं के आगे अपनी रचनाएँ नहीं पढ़ते थे, उन्हें केवल एकान्त में लिखते थे।

मुझे विश्वास है कि शरद जोशी का यह संग्रह उनकी कीर्ति को और भी परिपुष्ट करेगा, उनके यशःकाय की उपस्थिति को हमारे बीच और भी जीवन्त बनायेगा।
 -श्रीलाल शुक्ल
अन्तिम पृष्ठ आवरण -  
एक ज़माना था, जब यह पंक्ति मशहूर थी कि 'जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालों।' अंग्रेज़ों के पास तोपें थीं और उसके मुकाबले में भारतवासी अख़बारों का प्रकाशन करते थे। 'हरिजन' छापना गाँधीजी के लिए एक अहिंसक क्रिया थी। अत्याचारों के विरुद्ध विचारों की लड़ाई। उन दिनों सभी हिन्दी पत्र राष्ट्रीय और अखिल भारतीय होते थे। उन दिनों छपे अख़बारों को घूम-घूमकर बेचना देश और समाज की सेवा मानी जाती थी। आज जो काँग्रेसी मन्त्री और मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे हैं, इनके बाप और चाचा यह काम बड़े उत्साह और लगन से करते थे। अंग्रेज़ों के पास तोप थी, काँग्रेसियों के पास अख़बार। इन राजनेताओं के चरित्र में जो आदर्शवादिता का अंश राजनीतिक कैरियर के आरम्भिक वर्षों में नज़र आता था, वह ऐसे ही अख़बारों का प्रभाव था। इन होनहार बिरवानों के पत्तों पर जो आशा जगानेवाला चिकनापन शुरू में था, वह बड़ी हद तक अख़बारों की देन था। समाज में इनकी आरम्भिक तुतलाहट अख़बार की भाषा बोलने के कारण दूर हुई इनके अधकच्चे, अधकचरे सार्वजनिक प्रलापों को अख़बारों ने आकार-प्रकार और सुधार देकर प्रकाशित किया, जिससे इनके ऊबड़-खाबड़ व्यक्तित्व को सँवरने का मौका मिला।

ISBN
9788170555636
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