Kabir Ki Khoj
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"जब हिन्दी आलोचना का विकास हो रहा था, उस समय कबीर किसी गिनती में नहीं थे । संघर्ष सूर और तुलसी तथा बिहारी और मतिराम के बीच था। रामचन्द्र शुक्ल की स्थापनाओं के कारण तुलसी बहुत समय तक हिन्दी साहित्य के आकाश में छाये रहे। सिर्फ़ पचास-साठ साल बाद आज हम पाते हैं कि कबीर की तूती बोल रही है और वे आधुनिक युग के पूर्व के हमारे पुरखों में सबसे महत्त्वपूर्ण कवि हो गये हैं। क्या यह कबीर की छह सौवीं जयन्ती का प्रताप है? या, इसके कुछ ऐतिहासिक कारण हैं? आख़िर बात क्या है कि आज के भारतीय समय में कबीर की प्रासंगिकता लगातार बढ़ती ही जा रही है?
आधुनिक साहित्य का मूल स्वर प्रश्नाकुलता का है, तो कबीर हिन्दी के पहले प्रमुख कवि हैं जिनमें गहरी प्रश्नाकुलता दिखाई पड़ती है। यथास्थिति से विद्रोह करनेवाला उनके जैसा बड़ा व्यक्तित्व मध्य युग में नहीं हुआ। कबीर में समता और स्वतन्त्रता के आधुनिक मूल्यों का जैसा परिपाक मिलता है, वैसा उस युग में किसी और लेखक में नहीं। वे विवेकवादी थे और अन्धास्था का कोई भी रूप उन्हें मंजूर नहीं था। आश्चर्य की बात यह है कि इसके बावजूद उनकी रचनाओं में प्रेम का निगूढ़ तत्त्व हर जगह मौजूद मिलता है। यही कबीर की विशेषता है।
हिन्दी में कबीर को समझने की अनेक कोशिशें हुई हैं। लेकिन प्रायः सभी में कुछ-न-कुछ खोट रहा है। इसका कारण यह है कि हर आलोचक ने उन्हें किसी-न-किसी चौखटे में बाँधने की कोशिश की। जिन्होंने कबीर के बेहदपने को पहचाना, उन्होंने भी दबे-छिपे ऐसे संकेत दिये, जिनकी मदद से कबीर को किसी ख़ास विचारधारा से जोड़ा जा सके। कुछ के लिए उनका समाज सुधारक रूप मुख्य बन गया, तो कुछ के लिए उनका भक्त रूप । इन सब चेष्टाओं से कबीर के अनेक रूपों का उद्घाटन हुआ, लेकिन उनके समग्र व्यक्तित्व का कोई खाका उभर नहीं पाया। ऐसा लगता है कि कबीर में कुछ ऐसा है जो सारे प्रतिपादनों और विश्लेषणों से फिसल जाता है। शायद यही कबीरियत है ।
कबीर को समझना हो, तो इस कबीरियत के मर्म तक पहुँचना होगा। बिना किसी दावे के, विनम्रतापूर्वक यह कहा जा सकता है कि इस संकलन के लेखों में ऐसा ही प्रयास दिखाई पड़ता है। इस प्रयास में न किसी प्रकार का पूर्वाग्रह है और न ही कुछ आरोपित करने का चाव । उद्देश्य कबीर की खोज है। कबीर को समझने के लिए खुले मन और दिमाग से काम लिया गया है। यह अकारण नहीं है कि हर लेखक ने कबीर तक पहुँचने का अपना रास्ता बनाया है। यह स्वाभाविक भी है और उचित भी, क्योंकि कबीर को किसी एक सूत्र में बाँध पाना असम्भव है। जो कवि हदों से पार जाने में ही सार्थकता का अनुभव करता हो, उसकी हदें तय करने का प्रयास बुद्धिमानी नहीं है। इसीलिए कबीर को कई-कई ओर से देखा जाना चाहिए। भक्ति भावना के एक विलक्षण प्रतिपादक के रूप में, विवेक की वाणी सुननेवाले के रूप में और साहित्य के द्वारा समाज में हस्तक्षेप करने की कला सिखानेवाले के रूप में भी । एक महत्त्वपूर्ण कोण आज के सन्दर्भ में कबीर की प्रासंगिकता का है। निश्चय ही धर्मनिरपेक्षता के अलावा इस प्रासंगिकता के और भी अनेक आयाम हैं ।
मूल कबीर का रसास्वादन किये बगैर कबीर की कोई भी खोज अधूरी होगी । अतः कबीर का एक चयन भी साथ दिया जा रहा है ।
कबीर की खोज का सम्पादन किया है राजकिशोर ने, जिनके लेखकीय विवेक और सन्तुलन ने हिन्दी में अपनी एक ख़ास जगह बनायी है।"
ISBN
9789357757201