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‘कन्यादान’ नाटक सीधी रचना होते हुए भी अन्य नाटकों की भाँति विवादास्पद है। यह नाटक इसके एक पात्र दलित लेखक आठवले का ही नाटक नहीं है, न ही पिछली पीढ़ी के समाजवादी विचार के हिमायती समाजवादी कार्यकर्त्ता नाथ देवलालीकर का और ना ही नाथ की पुत्री ज्योति का है, जो नाटक के धधकते अग्निकुण्ड में अपनी आहुति दे देती है। यह नाटक है हमारे यहाँ मान्यता प्राप्त वैचारिक धारणा और कठोर यथार्थ के बीच नये सिरे से उभरते प्राणलेवा संघर्ष और उसकी प्रवृत्तियों का। सामाजिक परिवर्तन के मन्थन में लगातार टकराते-टूटते बनते हुए भारतीय समाज के सामने मुँह बाये खड़ी एक भीषण समस्या का झुलसाता उद्घाटन है- कन्यादान।
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