Kaviratna Meer
कविरत्न मीर -
मीर उर्दू शायरी के ख़ुदा कहे गये हैं और इसमें लेश मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है। ऐसी सर्वांग सुन्दर रचना उर्दू में और किसी की नहीं। ग़ालिब ने भी अगर उस्ताद माना तो मीर ही को। मीर ने शायरी का सच्चा मर्म समझा था उनकी शायरी में ऐसे जज़्बात बहुत कम हैं जिनके समझने और अनुभव करने में किसी को दिक़्क़त हो। वह फ़ारसी तरकीबों से कोसों भागते हैं और ज़ुल्फ़ व कमर की उलझनों में बहुत कम फँसते हैं। उनकी शायरी जज़्बात की शायरी है, जो सीधे हृदय में उतर कर उसे हिला देती है।
दिल्ली की शायरी का रंग मीर ही का क़ायम किया हुआ है, और अब क़रीब दो सौ बरस तक लखनऊ की तंग और गन्दी गलियों में भटकने के बाद दिल्ली ही के रंग पर चलते नज़र आते हैं। यों कहो कि मीर ने उर्दू कविता की मर्यादा स्थापित कर दी है और जो कवि उसकी उपेक्षा करेगा वह कृत्रिमता के दलदल में फँसेगा।
मीर का क़लाम उठाकर देखिये कितनी ताज़गी है, कितनी तरावट; दो सदियों के खिले हुए फूल आज भी वैसे ही दिल को ठण्डक और आँखों को तरावट पहुँचाते हैं। मालूम होता है किसी उस्ताद ने आज ही ये शे'र कहे हों। ज़माने ने उनसे बहुत पीछे के शायरों के क़लाम को दुर्बोध बना दिया। मगर मीर की ज़ुबान पर उसका ज़रा भी असर नहीं पड़ा। रामनाथ लाल जी 'सुमन' ने मीर पर यह आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखकर हिन्दी भाषा का उपकार किया है।—प्रेमचन्द