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Ko Babhan Ko Sooda
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"‘को बाभन को सूदा’ चर्चित लेखक, आलोचक और चिन्तक हरिनारायण ठाकुर की बहुजन-दृष्टि से बहुजन-दृष्टि लिखी गयी हिन्दी की पहली 'आत्मकथा' है, जो उनके जीवन के साथ-साथ भारतीय समाज में पिछड़े, ख़ासकर अति पिछड़े वर्ग के जीवन-यथार्थ और संघर्ष को रेखांकित करती है। इस दृष्टि से आत्मकथाओं के इतिहास और समाजशास्त्र पर फिर से विचार करने की ज़रूरत जान पड़ती है।
हिन्दी में आत्मकथाओं का इतिहास नया नहीं है। 'थेरीगाथा' की भिक्षुणियों के आत्मवृत्तान्त, भक्तिकाल में सन्त कवियों की जाति-वर्ण जनित अनुभूतियों का चित्रण, आदिकाल के 'रासो साहित्य' के कवियों का आत्मवृत्तान्त आदि में आत्मकथा के तत्त्व और स्रोत ढूँढ़े जा सकते हैं। अरबी-फ़ारसी-तुर्की में 'बाबरनामा' और मीर तक़ी 'मीर' की 'ज़िक्रेमीर' को पहली प्रामाणिक आत्मकथा माना गया है। हिन्दी में इसकी शुरुआत 1641 में लिखी गयी बनारसीदास जैन की आत्मकथा ‘अर्द्धकथा' से मानी जाती है। किन्तु यह ब्रजभाषा में है। अतः हिन्दी आत्मकथा की शुरुआत भारतेन्दु की कुछ आपबीती, कुछ जगबीती से ही माननी पड़ेगी। 1901 से हिन्दी आत्मकथाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। अम्बिकादत्त व्यास से लेकर हरिवंशराय बच्चन और उसके बाद तक हिन्दी लेखक और कवियों की अनेक आत्मकथाएँ आती हैं। इस बीच अंग्रेज़ी के ऑटोबायोग्राफी की तर्ज पर गांधी, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आज़ाद आदि चर्चित राजनेताओं की आत्मकथाएँ भी आती हैं।
लेकिन आत्मकथा के इतिहास में तहलका तब मचता है, जब स्त्री और दलितों की आत्मकथाएँ आती हैं। स्त्रियों में अमृता प्रीतम, कुसुम अंसल, प्रतिभा अग्रवाल, प्रभा खेतान, पद्मा सचदेव, कृष्णा अग्निहोत्री, मैत्रेयी पुष्पा, कौशल्या बैसन्त्री आदि और दलितों में दया पवार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, तुलसी राम, सूरजपाल चौहान, शरण कुमार लिम्बाले आदि की आत्मकथाओं के आने से लेखन-जगत और समाज में उथल-पुथल मच जाती है। मुख्यधारा की आत्मकथाओं में जहाँ लेखक के व्यक्तिगत गुण-दोष, आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक पक्षों का ही चित्रण हुआ, वहीं स्त्री और दलितों द्वारा जीवन और समाज के वर्जित क्षेत्र और प्रसंगों का चित्रण होने से पितृसत्ता और जाति-वर्ण जनित अमानवीय शोषण का समाजशास्त्र साहित्य में पहली बार आया। इसमें भोक्ता की पीड़ा, असहमति और विद्रोह मुखर होकर उभरे। इससे मुख्यधारा के साहित्य और समाज की सोच की दिशा बदलने लगी।
लेकिन स्त्री और दलितों की तरह पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के शोषण के समाजशास्त्र को लेकर कोई वैसी आत्मकथा नहीं आयी। बकौल लेखक राजेन्द्र यादव (मुड़-मुड़के देखता हूँ) और मन्नू भंडारी (एक कहानी यह भी) की आत्मकथाएँ बहुजन-दृष्टि से नहीं लिखी गयी हैं। वर्ष 1979 में मराठी में नाई जाति के एक लेखक राम नगरकर की आत्मकथा आयी थी - 'राम नगरी'। सन्तराम बी.ए. की आत्मकथा 'मेरे जीवन के अनुभव' 1963 में आयी, जिसका पुनः प्रकाशन भी हुआ है। इधर एक-दो आत्मकथाएँ और आयी हैं। किन्तु उनमें भी पर्याप्त बहुजन-दृष्टि और शोषण का समाजशास्त्र नहीं है।
हरिनारायण ठाकुर की प्रस्तुत आत्मकथा ‘को बाभन को सूदा’ समय और समाज से टकराता हुआ लेखक का आत्मचरित भी है और समाजशास्त्रीय विमर्श भी। इसका शीर्षक ही जाति-व्यवस्था का निषेध करता है। यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ सिद्ध होने वाली है। उम्मीद है, पुस्तक आम पाठक और शोधार्थियों के लिए महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होगी।
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Ko Babhan Ko Sooda
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