Konpal Katha
कोंपल कथा -
कमरे में ज्ञान सूनी आँखों से एकमात्र खिड़की की तरफ़ देख रही थी। आँखों में आँसू और हृदय फटा जा रहा था। अन्दर एक ज्वार कुलाँचे मार रहा था। दर्द का ज्वार जैसे कोई लगातार हृदय को छेद रहा हो। पिटी, लाचार ज्ञान जैसे विक्षिप्त हो गयी हो। सब कुछ बेतरतीब। यह कैसी शादी है? बाबूजी नहीं, बड़का भैया नहीं, विभा दीदी नहीं! यह शादी सबके रहने पर नहीं हो सकती थी? किसी को कुछ पता नहीं। छोटी भाभी, भैया, बस। वे ही सब जानते हैं। यह सत्यनारायण पूजा पूरा नाटक! जरूर कहीं से लड़का पकड़कर ले आये हैं। भाभी भी नहीं बोली। अचानक हँसी-मजाक करने लगी। कल तक तो बोलती भी नहीं थी। उसको जरूर पता था। क्या करे, किससे कहे...कहने से भी कौन सुनेगा... कुँवारी लड़की की कौन सुनता है....दादी... दादी क्या करेगी? अपाहिज, मोहताज! पागल क्या करेगी?
भाग जाये! कहाँ? किसके भरोसे, इस आधी रात में? भैया आँगन में। कौन भागने देगा? लड़की क्या हाट पर बिकता हुआ बैल है? किसी खूँटे से दूसरा बैल लाओ, जोड़ी मिला दो! किस आशा में बँधी बैठी रही तू? बाबूजी, भैया, लड़का ढूँढेंगे। धूमधाम से शादी होगी। रोती-बिलखती ससुराल जायेगी। रो, बिलख। शादी से पहले रो... बाद में भी रोते रहना। सारी उम्र रोने को पड़ी है। औरत के पास क्या है रोने के सिवा? कमज़ोर, अपनी जंजीरों में क़ैद। तू औरत क्यों हुई? अपमान, लांछना, आँसू के लिए? दहेजरूपी कोढ़ को बेनक़ाब करते कथानायिका ज्ञान की व्यथा-कथा के बहाने समाज के अज्ञान को बेनक़ाब करने में सक्षम।
-इसी उपन्यास से एक अंश।
Publication | Vani Prakashan |
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