Kriti Ka
कृति का –
सुबह कृतिका के लिए एक तरह का पैग़ाम लेकर आती हर बार कोई नया अलग सा पैग़ाम। कई सुबहे, जो अकेली कही जानेवाली सुबह होती उनमें उसकी नींद खुलती तो पूरे कमरे में क्या पूरे घर में कोई न होता जुड़े हुए पाँच-छ लोग बड़े कमरों वाले बंगले की सभी दीवारों के बीच वह अकेली होती।
कई बार अकेली सुबहों के आने के पहले वाले घंटों में कृति की आँखें अपने आप खुल जाती। उस समय भोर का धुँधलका भी न छँटा होता। रात्रि के बीतते पगों को महसुसती वह सोने के कमरे से निकल कर बगल के कमरे में आ खड़ी होती, दाहिनी ओर की दीवार के माथे पर टिके अधखुले रोशनदान के पार नीम के पेड़ की फुनगी हिलती हुई दिख पड़ती। कृतिका बीच के कमरे से गुज़रकर ड्राइंगरूम में आ जाती।
रात के बीत रहे प्रहर के साक्षी रूप में स्थित सजे-धजे उस भव्य कमरे की आकृति उसे मोह लेती-सोफ़े पर मढ़ी हुई लाल मखमली किरण कश्मीरी कालीन के लाल बूटों से जा टकराती पदों की सुनहली ताब में लिपटी टेपेस्ट्री की मोटी सलवटें बड़े शालीन ढंग से कधों को झुकाये खड़ी दिखती।
कमरे को गन्ध में लिपटा मौन आगे बढ़कर कृतिका को चारों ओर से घेर लेता, वह सजाये गये गमलों के पौधों और एक-एक सजावटी आइटम पर नज़रें फिराती, मुग्धता का यह आलम आनेवाली भोर की आगवानी करता हुआ प्रतीत होता। तभी खाने वाले कमरे को अलग करनेवाले पार्टिशन पर लगे लेस के पदों की मोतिया ताब, हवा की लहर पर पिछले बरामदे से आनेवाली सुथरी हवा की गन्ध के संग सभी कमरों के रोशनदानों तक फैल जाती।
कृतिका का मौन उसके नाइटी के झालर तले सिमट जाता और वह बाहरी दरवाज़े के दुहरेपन को एक-एक करके खोल डालती। मध्य में लगे लैच को वह पहले हटाती, फिर लम्बी चिटखनी को बाई ओर से घुमाकर सीधा करती और नीचे लाकर छोड़ देती।
दरवाज़े की पहली तह बीचों बीच से खुल पड़ती। जालीदार दरवाज़े के पल्ले बाहर बरामदे की ओर खुलते।