Lakkarbagghe Shahar Mein
लकड़बग्घे : शहर में -
'लकड़बग्घे : शहर में' विक्रम सिंह का दूसरा कविता संग्रह है। इन कविताओं का मूल आशय अपसंस्कृत और आसामाजिक होते जाते मनुष्य के वास्तविक चरित्र को उजागर करना है। कवि के सरोकार बेहद स्पष्ट हैं। जहाँ वह सृष्टि की सुन्दरतम रचना को कुरूप होते देखता है वहाँ वह अपना हार्दिक दुख व्यक्त करता है तथा समाज के विद्रूपित यथार्थ को देखकर वह अन्दर तक तिलमिलाता है और ग़लत का प्रतिकार करता है।
यहाँ हम मानवीय सद्इच्छाओं के साथ ही रचनाकार के मानसिक संघर्ष को देख सकते हैं। उसकी मुख्य चिन्ता मनुष्य में पशुत्व के स्वाभाविक अंश की आलोचना नहीं; पशुओं का मनुष्य वेश में खुलेआम विचरण करना है। यह सामाजिक विसंगति ही है कि अपने आचरण में पशुवत् व्यवहार करने वाले मनुष्य होने का दिखावा करते हैं और साथ ही अपने सिद्धान्तों पर चलकर सद्भावपूर्वक जीने की इच्छा रखने वाले निर्दोष मनुष्यों का निर्मम संहार करते हैं। इतना ही नहीं ऐसे भ्रष्ट लोग समाज के प्रतिष्ठित, भद्र, और कथित रूप से उदार व्यक्ति माने जाते हैं।
ऐसे में कवि का यह दुख कि परिवर्तन का भी सामाजिक शक्तियाँ संगठित होकर अन्याय-अत्याचार का प्रखर विरोध नहीं करती और
'अन्धविश्वासों की अफीम खाकर सोये हुए ढूँढ़ रहे हैं हम/ मानवीय समस्याओं के दैवीय हल नहीं मालूम है हमें लौकिक समस्याओं के हल लौकिक ही होते हैं।' ऐसी यथार्थवादी जीवन-दृष्टि रखने वाला कवि ही दुनिया पर विश्वास रखता है और घोषित करता है- 'जगत् मिथ्या नहीं है/जीवन-सच यही है।' उसका स्पष्ट मत है कि 'परलोक की बजाय अब भूलोक पर आना चाहिए।' यह जीवन का सच्चा स्वीकार है।