Laut Aayangi Aankhen
लौट आएँगी आँखें -
रामकुमार कृषक का कवि प्रकृति और अपने समय से संवाद करते हुए इतिहास और उसकी रूढ़ अवधारणाओं को कठघरे में खड़ा करता वह न तो समकालीन विडम्बनाओं से भागना जानता है और न उन्हें व्यक्त करने को उतावला रहता है। वह अपनी आँखों देखी कठोर और क्रूर सच्चाइयों का धैर्यवान कवि है- “सूखे गन्ने की तरह खड़ा है भागसिंह!" यह उसका ग्रामीण यथार्थ है और- "हर सुबह अपदस्थ हुआ मैं/चाय के साथ उबलना शुरू कर देता हूँ" उसका शहरी यथार्थ।
साझा संस्कृति का कवि न गीत-संवेदना को नकारता है, न आधुनिक त्रासदी से मुँह मोड़ता है। कृषक का कवि ऐसा ही कवि है। शहर और गाँव के बीच उसकी कविता में जो खण्डित बिम्ब बिखरे नज़र आते हैं, वही आज के इन्सान की सच्चाई है। उसकी चाहत और प्रश्न भी इसी में निहित हैं। आधुनिक बोध के संग-साथ चलते हुए कृषक की काव्य-संवदेना क्रान्ति के सवाल को लगातार अपने सामने रखती है।
हमारे आज के ज़्यादातर कवि जहाँ समकालीन ज़िन्दगी पर सपाटबयानी कर रहे हैं और धीरे-धीरे कविता से ही विरत होते जा रहे हैं, वहीं कृषक का कवि टॉपिकल पोयम लिखनेवाले शहरी कवियों के मुकाबले मर्मस्पर्शी जीवन-यथार्थ और उसके सहज स्वीकार का कवि है- “ख़ाली घर, ख़ाली जेब और खाली वक़्त/भरी धरती का छटपटाना " इसी त्रासदीय छटपटाहट ने कृषक के कवि की गहरी और आत्मीय कुव्वत का कवि बना दिया है।
मेरे लिए सर्वेश्वर , गोरख, मानबहादुर और पाश की 'दुःसह अनुभूति' के सार्थक कवि हैं कृषक। सम्भव है एक और कवि महेश्वर की तरह आज के सवालों का उत्तर खोजते हुए गुज़र जाये। सम्भव है पीढ़ियों के प्रश्न' विश्वमंडी के दलालों, संस्कृति के बिचौलियों और मस्जिद तोड़नेवालों से कभी अपना जवाब माँगें। संकट के इस दौर में कृषक की कविता वास्तव में एक पोस्टर कविता है। इस मानी में ये नागार्जुन के निकटवर्ती राजनीतिक सत्य के कवि हैं। बच्चे और उनकी आँखें इन कविताओं में देश का भविष्य है, और "पुराना होते जाने के साथ साथ/नया होते जाने की" कवि की अपनी चाह भी मुझे बार-बार रोमांचित करती है। -विष्णुचंद्र शर्मा